Monday, September 23, 2013

मेरे सपने में पधारे बप्पा

         अक्सर सुना है कि फलाने के सपने में देवी मां आयी थी और मंदिर बनवाने का कह गयी है। ढिमाके के सपने में महादेव आए और रुद्राभिषेक की मांग कर गए। ये सब सुनने के बाद मेरा मन बड़ा दुखी होता। 333 करोड़ देवी, देवताओं और उनके परिवारों या उनके दूर के रिश्तेदारों में से ही सही कोई तो मेरे सपने में आता। मुझे भी मेरे मित्रों, बकवादी पड़ोसियों को रात में देव पधारने की चमत्कारिक किस्से-कहानियां  सुनाने का खूब मन करता है। ये अवसर मुझे कल ही मिला। कल,  हाँ, कल सुबह-सुबह जब मैं नींद से अपना बिस्तर छोड़ने की जदोजहद में थी। तब मेरे सपने में या अधकचरी नींद में न जाने कहां गणपति बाप्पा पधारे। गणपति बाप्पा इसलिए क्योंकि आज-कल जहां-तहां गणपति बाप्पा मोरया के स्वर गूंज रहें हैं। तो ये आज-कल ख़ासा डिमांड में है। बाप्पा अपने बड़े-से उदर और लंबे-से सूड के साथ मेरे सामने हाथ में मोदक लिए चूहे पर सवार प्रकट हो गए। मैं, नींद में अपनी आंखें मिचमिचाती सोचने लगी कि ये आ तो गए लेकिन अगर इन्होने मुझसे मंदिर या महंगे पूजा-अर्चना, दान-दक्षिणा की मांग की तो कलम घिस के बमुश्किल अपना पेट भरनेवाली मैं, कहां से इनकी मांगों को पूरा करूंगी। इस सोच के कुछ अंश हमारे नगरसेवकों, सांसदों, मंत्रियों के यहां से चुराए हुए हैं। मेरी स्वप्न-देव की इच्छा अब चिंता में बदल गयी थी। फिर भी मैंने गरीब, मजबूर आम आदमी की तरह हाथ जोड़ सामने खड़े कर्ता-धर्ता का स्वागत किया। 

      मैंने उनसे डरते-डरते पूछा कि आज आप मेरे यहां कैसे पधारे? बताईए मैं आपकी क्या सेवा करूं? देवों पर सच्ची श्रद्धा हो न हो डरना बेहद जरुरी है। वे सहज ही मेरे सवाल को सुनकर मुस्कुराए और कहने लगे, "बस यहीं से गुजर रहा था। तो सोचा चलो तुमसे मिलता हुआ जाऊं।" मैंने अपनी उबासी को मुंह फुगाकर दबाते हुए कहा, "चलिए, आप आए हैं, तो बताए क्या लेंगे?" उन्होंने मुंह बिचकाते हुए कहा, "क्या दोगी तुम? वही यूरिया के दूध की खीर, मिलावटी मावें की मिठाई, केमिकल्स से पकाए गए फल और सब्जी या जहर मिला खाना?" मेरी नींद आधी पहले ही टूट चुकी थी। इनकी ये बातें सुनकर गुस्से में पूरी टूट गयी। मैंने मानव-समाज का पूरा प्रतिनिधत्व करते हुए कहा, "आज-कल महंगाई इतनी बढ़ गई है, कि हम अपने मां-बाप तक को साथ नहीं रखते। अपने दोस्तों को पानी से ज्यादा नहीं पूछते, रिश्तेदारों को पहचानते वक़्त कर्ज में डूब जाते हैं। ऐसे में आपको मैंने सुबह-सुबह खाने के लिए पूछ लिया। फिर भी आप इतना ऊंचा-नीचा गिनाने लगे। कमाल करते हैं आप भी! आपके पंडालों को हमने देखों कितना भव्य बनाया है। लाखों लोग आपको मेवा-मसाला, फल-फूल का रोज भोग लगाते है। और आप हैं, कि मुंह बिचकाते हैं।" मेरी तिलमिलाहट को देखकर बाप्पा मुस्कुराकर बोले, "देखा! कितने सतहीदिखावटी हो गए हो तुमलोग। अपने ईश्वर के लिए जो किया उसको भी गिनाने में देर नहीं करते। खैर, जो तुम भव्यता की बात करती हो, उससे मुझे क्या मिला? लोगों ने ईश्वर के डर से पैसा तुम्हे चंदा के रूप में दिया, नेताओं ने अपने वोट बनाने के लिए लाखों मेरी भव्यता बढ़ाने में फूंक डाले, देश के कर्ज की बगैर चिंता किए सोने का मुकुट, सोने का मोदक, सोने की माला, न जाने क्या-क्या मुझपर लाद दिया। बंडल-के-बंडल मेरे चरणों में रख दिए। सैकड़ों नारियल मेरे सामने बिखेर दिए।"   

अतिउत्साही मैं, बाप्पा की बात पूरी सुने बगैर अपनेलोगों की वकालत करने लगी, "ये सब आपको प्रिय है। और आप तो इन्ही सबसे खुश होकर मनोकामना पूरी करते हैं।" मेरी उदंडता के बावजूद वो फिर मुस्कुराए, "इसमें कोई दोराय नहीं कि मुझे मोदक, मिठाई,सजावट पसंद है। लेकिन मैं बिकाऊ नहीं। जो पैसों, सोने के बदले तुम्हारी मनोकामना पूरी करूं। मैंने हमेशा कहा है, जैसा करोगे, वैसा ही पाओगे। तुम्हारी कर्मशीलता और प्रेम के अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।" वे अपनी बात पूरी कर फिर मुस्कुराए और खुद ही बोलने लगे, " मेरे पंडाल के बाहर कई गरीब, भूके, अपंग पड़े थे। तुम मुझे चढ़ावा चढाने की बजाय उनको खाना खिलाते, उनको तन ढकने का कपड़ा देते तो तुम मेरे लिए कुछ करते। ये जो तुमने नारियल,फूल, मिष्ठान चढ़ाए है, वे अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए किया है न कि मेरे लिए। तुम सब स्वार्थी हो गए हो।" मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं चुप-चाप उनकी छोटी-छोटी आंखों को निहारने लगी। वे बोलते जा रहे थे। मानो, कई दिन से उनके पेट में ये सब भरा पड़ा हो। और आज वे ये सारी बातें मेरे सामने उगलकर ही दम लेंगे। ऐसा करने के बाद उनका उदर बिना जिम गए कम हो जाएगा। 
 "मैं, जानता हूं। तुम मुझमें कहीं न कहीं श्रद्धा रखते हो। लेकिन फिर मेरे नाम पर इतने भद्दे संगीत, भौंडे नृत्य को आयोजित करते हो? मैंने पहले ही कहा है, मैं हर कण में हूं। फिर भी बड़ी-से-बड़ी मूर्ति सजाने की होड़ में लगे रहते हो। मेरा दूसरा घर सागर में,जल में है। इसलिए तुम मुझे जल में विसर्जित करते हो। लेकिन तुमने मेरे घर को भी दूषित कर दिया है। मेरे सारे जलचर मित्रों की आयु को कम कर दिया है।" जलचरों का नाम सुनते ही, मुझे ख्याल आया, कि कहीं हमारे नेताओं और संतों के गुस्सैल समर्थकों की तरह, इन जलचरों में से कुछ गुस्सैल समर्थकों ने गुस्से में इस बार गणेश-विसर्जन को गए भक्तों के पैर नोंचने का काम तो नहीं कियासोचा बाप्पा से अपनी ख्याल की पुष्टि करूं। ताकि पता लगे, कि आदमी के साथ-साथ ऐसी भावनाएं और भी जीवों में होती हैं। लेकिन फिर उन्हें डिस्टर्ब करने की हिम्मत नहीं हुई। वे आज मूड में थे। वे फिर बोले, "मुझे विसर्जित करने के लिए तुम नाचते-गाते आते हो, मुझे बहुत अच्छा लगता है। लेकिन वहीं पटाखों के शोर से मेरे कान सुन्न पड़ जाते हैं। उसके गंदे धुवें से मेरी सांसे घुट जाती हैं। मेरे बुजुर्ग मित्रों के दिल की धड़कने बढ़ जाती हैं। मैं, सबका बाप्पा हूं। मेरा एक बच्चा मस्त हो और दूसरा पस्त तो मैं कैसे खुश हो सकता हूं।" अब बाप्पा की बातों में मुझे दम नजर आने लगा। मैं गहन सोच में डूबती जा रही थी। मैंने अपनी बुद्धि को खूब दौड़ाया और फिर चतुर गणेशजी से पूछा, " तो फिर क्या हम गणेशोत्सव मनाना ही छोड़ दे! तुम्हे घर बुलाना ही बंद कर दें!" तो वे गंभीर होते हुए बोले, "नहीं, मैंने ऐसा कब कहा? तुम मुझे बुलाते हो, मुझे अच्छा लगता है। लेकिन मेरी वजह से अपने घर के बजट को मत बिगाडों। मैं तुम्हारा साथी हूं, तुम्हारा अपना हूं। मुझे अपने जैसा रखो। मुझे कोई स्पेशल ट्रीटमेंट की चाह नहीं है। हाँ, बस थोड़ी साफ़-सफाई रखा करो और अपने हाथों से मोदक बनाकर खिला दिया करो।" ये कहते हुए उनके हाथ उनके उदर पर फिर रहे थे। "मेरे नाम पर समाज,पर्यावरण को दूषित मत करो। सोचो, कितना अजीब लगता है जब मेरे आने की तैयारी के साथ-साथ मजबूरन सरकार को ध्वनि प्रदूषण और जल प्रदूषण जांचने की मशीन लगानी पड़ती है। पुलिस को लड़कियों की सुरक्षा के लिए विशेष दस्ता बनाना पड़ता है। सोचो, कैसा लगेगा जब तुम्हारे जाने के बाद घर में जहां-तहां प्रदूषण हो। विसर्जन के बाद मेरा एक-एक अंग छितिर-बितिर होकर यहां-वहां समुंद्र के किनारे पड़ा हो।"

ये सब सुनते-सुनते मेरे भीतर शर्मिंदगी घुमड़ने लगी। अबतक मैं उनकी आंखों को निहार रही थी। उनके साथ तर्क करने में जुटी थी। पर अब अपराधबोध के भाव ने मेरी नज़रों को झुका दिया था। वे मेरी झुकी हुई नजरों को उठाते हुए बोले, "तुम निराश न हो। अपनी गलतियों को समझो और उसे सुधारने की कोशिश करो।" उनका गला रुंध गया था। वे आंसुओं को गले से नीचे उतारते हुए बोले, "मेरा तुम्हारे घर, मुहल्ले में आना अब एक व्यापार बन चुका है। पहले दिन से लेकर 11 वें दिन तक सिर्फ स्वार्थ ही देखने को मिलता है। मुझे तुमलोगों का प्यार चाहिए। मैं, तुम्हारा मित्र, तुम्हारा सखा, तुम्हारा पिता, तुम्हारी माता, तुम्हारी बहन बनने आता हूं न कि तुम्हारे जेब को तौलने।" इतना कहते-कहते वो अदृश्य हो गए। मैं, अब नींद से बाहर थी। पूरी तरह से। मेरे दोस्तों, पड़ोसियों की तरह मैंने उन्हें अपने देव-दर्शन और उनके संदेश को सबको बतलाया। तो वे सब मुझपर हंस पड़े और कहने लगे, "तुम नास्तिक किस्म की हो। इसलिए ऐसी मनघड़क कहानियां कह रही हो। ईश्वर आए और तुमसे कुछ बनवाने या दान करने को नहीं कहा ऐसा संभव नहीं। झूठी कहीं की!"  
अगले दिन पता लगा कि कल रात को बगल की नैना आंटी के सपने में बाप्पा आए थे। उन्होंने उससे बेटी की शादी के बदले में अगले बरस सोने का मुकुट मांगा है। उसके सपने पर  सबको यकीन हो गया। शायद बदले की भावना इतनी तीव्र हो गयी है, कि रात के सपने ही हकीकत लगते है। वास्तविकता को छूने तक की हिम्मत हम में बची नहीं है।

 - सोनम गुप्ता




4 comments:

  1. jane kyun Jhooth ko arsh par dekhata hu......
    Hakikat ko arsh par dekhata hu.....
    Dekhata hu har sach aur jhooth ko...
    Darmiyan mein me ye kalam dekhata hu.........

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    1. आपकी काव्यात्मक प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद!

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  2. बढ़िया....यूं ही लिखती रहो..

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    1. धन्यवाद सौम्या मैम… :)

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आपकी टिप्पणिया बेहद महत्त्वपूर्ण है.
आपकी बेबाक प्रातक्रिया के लिए धन्यवाद!