Friday, July 26, 2013

आखिर पुरुषों का आभार क्यों प्रकट करें महिलाएं


नवभारत टाइम्स के संपादकीय पृष्ट पर प्रकाशित मेरा एक लेख…

नवभारत टाइम्स | Jul 26, 2013, 01.00AM IST

सोनम गुप्ता॥

आए दिन नेताओं के भाषणों और मीडिया में जोर-शोर से कहा जाता है कि महिलाओं और पुरुषों में कोई अंतर नहीं रहा। अब लड़कियां भी अपनी मर्जी के हिसाब से घूमती-फिरती हैं, फैसले करती हैं। वे तो चांद तक पहुंच गई हैं। ऐसी बातों से लगता है मानो भारतीय महिलाओं की स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव आ गया हो। स्थिति वाकई बदली है और बदल रही है। लेकिन बदलाव उतना नहीं हुआ है, जितना बताया जा रहा है। समाज की पुरुषवादी सोच थोड़ी कम जरूर हुई है पर खत्म नहीं हुई है। महिलाओं की असुरक्षा पिछले कुछ समय में बढ़ी ही है। जहां तक रोजी-रोजगार का प्रश्न है, तो उनमें उनकी संख्या घटने लगी है, चाहे वह गांव हो या शहर।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2004 में देश के कुल वर्क फोर्स में स्त्रियों की संख्या लगभग 30 प्रतिशत थी जो अब 22 प्रतिशत हो गई है। शहरी इलाकों में उनकी कुल भागीदारी महज 15 फीसदी है। अभी इसका आकलन बाकी है कि ऐसा क्यों हुआ है पर आशंका यह है कि समाज में बढ़ती असुरक्षा और वर्कप्लेस पर खराब माहौल ने औरतों में भय पैदा कर दिया है। वे घर में ही रहकर कुछ करने को बेहतर समझ रही हैं। आज भी प्राइवेट सेक्टर में एक महिला वर्कर को पुरुष वर्कर की तुलना में कम उपयोगी समझा जाता है। छंटनी सबसे पहले महिला कर्मचारियों की होती है। इतना ही नहीं, औरतों को सीनियर पोस्ट भी नहीं दिए जाते।
वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम द्वारा कंपनियों में स्त्री-पुरुष समानता को लेकर जारी ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट-2012 के अनुसार 135 देशों में भारत का स्थान 105 वां है। अगर कोई महिला घर से बाहर निकलती है तो पुरुष वर्ग इसका भी श्रेय खुद लेना चाहता है। स्त्रियां उनके प्रति इस तरह आभार प्रकट करती हैं जैसे उनके पिता, पति, ससुर ने उन पर अहसान किया हो। अक्सर महिलाएं कहती हैं-मैं कुछ नहीं कर पाती अगर मेरे पति, पिता ने मुझे घर से निकलने नहीं दिया होता। अगर मेरे ससुर ने मुझे शादी के बाद भी काम करने का अवसर नहीं दिया होता तो मैं कुछ न कर पाती। अपनी सफलता, अपनी स्वतंत्रता के लिए ऐसी कई लाइनें कहती नहीं थकतीं जबकि वे भूल जाती हैं कि स्त्री-पुरुष दोनों को समान अधिकार होता है। दरअसल इसमें महिलाओं की गलती भी नहीं है। हम बचपन से अपने आसपास जो देखते हैं, वही तो हम सीखते हैं। उसी को परम सत्य मानते हैं, बिना उसके आधार को जांचे-परखे।

बच्ची, भैया की तरह स्कूल गई, एक समान शिक्षा ग्रहण की। भाई स्कूल से लौटता, बस्ता फेंकता और सीधे नीचे दोस्तों के साथ खेलने पहुंच जाता। बच्ची ने जाने का मन बनाया तो नीचे जाने पर रोक लगा दी गई। भैया चेस खेलेगा, बच्ची लूडो, भैया क्रिकेट, फुटबॉल, बच्ची लंगड़ी और खो-खो। दोनों को एक ही अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलाकर माता-पिता अपनी छाती पीट कर कहते है कि हम लड़की और लड़के में कोई अंतर नहीं करते। भैया की गर्लफ्रेंड है। यह जानकर मम्मी-पापा, दादा-दादी चेहरे पर झूठे गुस्से का भाव लाकर दांत काढ़ हंस देते है। मौका मिलने पर उस लड़की के नाम से छेड़ना-चिढ़ाना भी हो जाता है। लेकिन इन्हीं समानता का अधिकार देने वाले मम्मी-पापा, दादा-दादी को झूठा ही कहा जाए कि बच्ची का शायद कोई बॉयफ्रेंड है, तो उनके नथुने चौड़े हो जाते हैं।

दोनों को मोबाइल दिया। क्योंकि हम लड़का और लड़की में कोई फरक नहीं करते न! बच्ची 5 मिनट से ज्यादा या हंसकर फोन पर बात कर ले तो जेम्स बांड को पछाड़ने वाली जासूसी घर में ही शुरू हो जाती है। भले ही बेटे के फोन में दर्जन भर पोर्न हों। औरत घर से बाहर निकलने के लिए अपने घर के पुरुषों का आभार व्यक्त करती है जबकि पुरुष आमतौर पर ऐसा नहीं करते। वे नहीं कहते कि उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया है, वह मां के कारण, दीदी के कारण या पत्नी के कारण। स्त्री-पुरुष में जब वास्तवमें समानता आ जाएगी, तब शायद किसी को इस तरह आभार प्रकट करने की जरूरत नहीं रहेगी।