Friday, August 16, 2013

पवार का पावर और प्याज

15 अगस्त को दबंग दुनिया के रायपुर एडिशन में प्रकाशित व्यंग्य निबंध 


      महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध कांदा पोहे में आज-कल केवल पोहा ही दिख रहा है। कांदा-पोहा बगैर कांदे के बनाए जा रहे हैं। प्याज की भजिया में केवल नाम में प्याज बचा है। पाव-भाजी अकेले नींबू के साथ प्लेट में बैठा हैं। अचानक से सब जैन बनने लगे। प्याज का गुलाबी रंग अब सविताजी के गालो में गुलाबी रंग नहीं बिखेरता। तिवारीजी जिनका खाना बिना समूचे प्याज के कभी शुरू नहीं होता था। अब वे केवल हरी मिर्ची चबाकर निवाला निगल जाते हैं। उनकी पत्नी बड़ी खुश हैं। अब उनका रिश्ता आगे बढेगा। प्याज की बदबू में नहीं अटकेगा। 
     पहले आम आदमी प्याज काटते हुए रोता था। अब वह खरीदते हुए भी रोने लगा हैं। आसमान छूते कांदे के भाव उसे रुलाने लगे है। एक ही कांदे में सुबह-शाम बिताने लगे हैं। कृषि मंत्री के राज्य में सबसे ज्यादा कांदा होता है। इतना ज्यादा कि न सिर्फ देशवालों को बल्कि विदेशियों को भी हम अपना कांदा खिलाते हैं। लेकिन फ़िलहाल प्रति कुंटल के भाव 800 रुपए बढ़ गए हैं। बाजार में आदमी जाता है। सब्जी खरीदता है। टमाटर खरीदता है। और फिर कांदे को आंखभर देखता हैं। इतना देखता है, कि अपने आंख में ही भर लेता है। क्योंकि बटुआ उसे अपने शोपिंग बैग में भरने की इजाजत नहीं देता। इसलिए आंख में ही भरकर वो खुश हो लेता है।  फिर घर जाकर बीवी के आंख में उसे ट्रांसफर कर देता है। बीवी अपने आंखों से आंसू निकाल-निकालकर आंख में भरे कांदे की याद में सब्जी छौकती हैं। मसाला कूटती है। बस आंखों ही आंखों में बच्चे उस कांदे का स्वाद अपने खाने में मिलाकर खा लेते हैं।
        मैं कहती हूं, प्याज के लिए क्यों इतना रोना? प्याज आखिर होता क्या है? एक छिलके का समूह ही तो। एक छिलके के भीतर दूसरा। दूसरे के भीतर तीसरा। तीसरे के भीतर चौथा। लगातार एक के भीतर एक। एक दूसरे से प्रेमवश चिपके हुए। जब इनको अलग करो तो इनके प्यार को हम अलग कर रहे होते है। इसलिए ये हमे रुलाते हैं। फ़िलहाल, इनका प्यार नहीं सरकार की उदासीनता हमे रुला रही है। प्याज की जैस-जैसे परत दर परत अलग होती है, वैसे-वैसे हमारे आंखों में एक-एक आंसू बढ़ते हैं। प्याज की हर एक परत के साथ सरकार का एक-एक गड़बड़-घोटाला भी परत दर परत खुल रहा है। एक के बाद एक घोटाला, पहलेवाले से और भी गुलाबी। और भी तीक्ष्ण। हम हर एक परत हटने के बाद रो रहें हैं। सरकार 'मालामाल' हो रहीं हैं। हम 'बेमाल' हो रहे हैं। प्याज के छिलके जैसे-जैसे हट रहे हैं, वैसे-वैसे सरकार नंगी हो रही है। हम नंगेपन का खेल देख रहे हैं। ये हमारे ही पैसो के कपड़े है, जो एक-एक कर उतर रहे हैं। और सरकार नंगी हो रही हैं। 
        हमारा देश किसानो का देश हैं। बहुत सालो से है। और आगे भी रहने की उम्मीद है। गरीब-रोते, आत्महत्या करते किसानो का देश। पवार साहब किसानो के मुखिया है। मुखिया हमेशा अमीर होता है। भले ही प्रजा गरीब रहे। मुखिया अमीर नहीं होगा तो मुखिया कैसे लगेगा। खैर, पवार साहब किसानो के मुखिया तो है। लेकिन वो खुद खेती नहीं करते। हल भी नहीं जोतते। बीज भी नहीं बोते। फिर भी वो मुखिया हैं। मुखिया के ही राज्य में कांदा 35-40 तक पहुंच गया है। मुखिया का गुस्सा बहुत तेज है। समय-समय पर अपने कार्यकर्ताओं की क्लास लेने से नहीं कतराते। सब मुंह बंदकर मुखिया की सुनते है। जी, हुजूरी करते है।  मुखिया जो कहते हैं, वही होता है। फिर मुखिया बिचौलियों को क्यों नहीं फटकारते? मुखिया क्यों उनपर लगाम नहीं कसते? कांदे के भाव को चढ़ने से क्यों नहीं रोक पाते? कहीं पवार का पावर कम तो नहीं हो गया? दरअसल, मुखिया पर किसानो के अलावा बिचौलियों की भी जिम्मेदारी हैं न! किसान उनकी प्रजा है, तो बिचौलिया उनका धनकोष बढाने का जरिया। इसलिए मुखिया प्रजा और धनकोष के बीच किसे चुने, संकट में है। वैसे धनकोष हमेशा प्रजा से बड़ा ही रहा है। प्रजा रोती है, बिलखती है और भूल जाती है। कोष नाराज हो गया तो मुखिया रो पड़ेगा। इसलिए प्रजा का रोना सहन होता है। मुखिया का रोना नहीं।              
           -सोनम गुप्ता  

प्रकशित लेख का कट-आउट 

भिन्न-भिन्न खोपड़ियां, भिन्न-भिन्न टोपियां।

    12 अगस्त को दबंग दुनिया में प्रकाशित व्यंग्य निबंध     

        टोपी का अपना ही महत्त्व है। टोपी न केवल धूप से बचाती है, बल्कि शान भी बनाती है। टोपी के कई प्रकार प्रचलित हैं। जैसे धूप की टोपी, धर्म की टोपी, कर्म की टोपी, दिखावटी टोपी, बुनावटी टोपी, शिकार की टोपी, चुनाव की टोपी, इत्यादि। सबका अपना रंग-रूप और मौसम होता है। जी हाँ, टोपी का भी मौसम होता है। सूरज सिर चढ़ता है। आग उगलता है, तो अपने खोपड़ी की रक्षा करने के लिए चोंचवाली टोपी। लड़कियों के लिए इसमें भी कई प्रकार और डिजाइन है। गोल, अंडाकार, लम्बी, चौड़ी, पतली, हलकी, भारी, आदि-आदि। जंगल में शिकार करने जाओ तो अलग टोपी। हर समय के लिए, हर खोपड़ी के लिए  टोपीवालों ने अलग-अलग टोपी ईजाद कर रखी हैं। आगे भी जरुरत के साथ और नई-नई बाजार में आती रहेंगी। 
      फ़िलहाल, हमारे देश में ईद की टोपी बड़ी चर्चित है। वैसे अपने मुंबई के डिब्बेवालों की टोपी भी वर्ल्ड फेमस है। इसको उन्होंने अपनी मेहनत से अमरीका तक पहुंचाया। मेहनत तो ये टोपी पहनानेवाले लोग भी बहुत करते हैं। दिन-रात टोपी पहनाने के नए-नए तरीके खोजने में व्यस्त रहते है। खैर, ईद आया। चांद छाया। इफ्तार पार्टियां मनाई गई। कभी पंजा, तो कभी घड़ी देख, तो कभी साईकिल पर सवार हो पत्रकारभाईलोग अपनी ईदी लेने पहुंच गए। कई जगह इफ्तार पार्टी में कमल भी खिले। पत्रकारभाईलोग के बाद अपने दद्दा, चच्चा, मामूजान का भी नंबर आया। शिकारी आगामी चुनाव के लिए जाल बिछाने लगे। गले मिलने लगे। सिमय्या खाने लगे। टोपियां पहनने लगे। कुछ की खोपड़ी में आराम से ईद की टोपी फिट आ गई। तो कुछ अपनी फिट की बनवाकर ले आए। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मौसम देखते ही टोपी पहन ली। रजा को खूब भायी इनकी टोपी। नमो ने टोपी को अपने खोपड़ी पर सवार होने से पहले ही बीच रास्ते में ही दुआ-सलाम कर वापस भेज दिया। ये बात रजा को नहीं पसंद आई। रजा भाई ने खूब बोला। टोपी को धर्म से जोड़ा। टोपी पहनने और पहनाने का हल्के में पोल खोला। फिर भी नमो को ईदगाह की टोपी नहीं जची। उनको 2011 में भी नहीं जची थी। रजा नाराज हुए। अरे, इसमें नाराज होनेवाली कौन-सी बात थी? अपनी-अपनी पसंद है। जिसको जो कम्फर्टेबल लगता है। नमो को टोपी नहीं फेटा, पगड़ी लुभाता है। लुभाएगा ही। यही पगड़ी, यही फेटा उसको राजनेता का टोपी पहनाता है। नमो को मालूम है कि सर सलामत तो टोपी हजार। अगर वो रजा की टोपी पहन लेते तो उनका सर सलामत रहने का चांसेस कम हो जाएगा। मगर रजा की तो एक ही मुराद थी। नमो को टोपी पहनाना। जो पूरी नहीं हो पाई। नमो, रजा की टोपी पहनने के लिए राजी नहीं हुए। इसलिए अभी वो खफा है। 
        नेतालोग को पता है, कब कौनसी टोपी किसको पहनानी है। वो आम आदमी को हर रोज टोपी पहनाता है। उसको अचानक से टोपी पहनाने का शौक चढ़ जाता है। वैसे अपने मुंबई के डिब्बेवालों को भी टोपी पहनाने का बहुत शौक हैं। लेकिन उनके शौक में सत्ता का स्वार्थ नहीं मिलता। उनका शौक तो बस शौक है। आम आदमी का शौक है।लेकिन नेता का शौक आम नहीं होता। उसके पीछे कुछ तो ख़ास होता है। अभी  उसको टोपी पहनाने का शौक लगा है। इफ्तार की पार्टी रख के, दिवाली मना के। घूम-घूम के वह टोपियां पहना रहा हैं। बाद में कुर्सी पर बैठने के बाद वह टोपी भूल जाता है। फिर उसको पहनाने में नहीं टोपी उछालने में मजा आता है। मैंने कहा था न टोपियों का मौसम होता है। पहनने का भी और उतारने का भी। अभी ईद गई। गणेशोत्सव आएगा। फिर सब नेता टोपी पहनाने के काम पर लग जाएंगे। कुछ पहनेंगे, कुछ नहीं। सब अपना-अपना मौसम देख के रंग बदलेंगे। इसकी टोपी उसके सर मढ़ देंगे। हम खुश होते हैं। उसने हमारे जैसी टोपी पहनी। हमारी टोपी पहनी। ये सोच के खुश होते है। वोट देते है। वो टोपी पहना के, टोपी पहन के वोट लेते है। बाद में हमारी टोपी उछाल देते हैं। हम अपनी टोपी के नीचे की खोपड़ी को खुजाते हैं। पश्चाते है। लेकिन ये टोपीवाले चुनाव के बाद गांधी टोपी और चुनाव के वक़्त धर्म की, छल की, झूट की, वादों की, कच्चे इरादों की टोपी और भिन्न-भिन्न किस्म की टोपियां लेकर हमारे दरवाजे पर पहुंच जाते हैं। हमारे सिर पर सवार हो जाते है। और हम टोपी पहन के पश्चाते हैं। ये टोपी पहन के सत्ता बनाते हैं। 
                   भिन्न-भिन्न खोपड़ियों के लिए भिन्न-भिन्न टोपियां होती हैं। सबका अपना अलग रंग-ढंग, चाल और मिज़ाज होता हैं। राजा की शान की टोपी, बनिए की नपी-तुली टोपी, पंडित की लोभी टोपी, अफसर की रिश्वत खाती टोपी, पड़ोसी की ईर्ष्यालु टोपी, डॉक्टर की मरीजो का खून चूसती गहरी लाल रंग की टोपी, लेखक की दंभी टोपी, पत्रकार की चापलूस टोपी, आम आदमी की धूल चाटती टोपी और नेता की विशेष चमकीले, आकर्षक वादों से सजी-धजी, लूटती-खसोटती टोपी। एक-से बढकर एक निराली टोपी। प्यारी और दुलारी टोपी। टोपी तेरे रूप अनेक, मैं हूं अचंभित तेरे गुण-धर्म देख।  
।। टोपी देव्यै नमो नमः ।।    
                        
                      - सोनम गुप्ता
प्रकाशित लेख का कट-आउट 



Sunday, August 11, 2013

रघुराम राजन और 'नाथू' की जिज्ञासा

  दबंग दुनिया में 09 अगस्त को प्रकाशित मेरा लेख...हमेशा की तरह आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।                       

                "रघुराम राजन भारतीय रिज़र्व बैंक के 23वें गवर्नर नियुक्त किए गए।" होटल में चाय पीते वक़्त यह खबर सामने न्यूज चैनल पर चल रही थी। तभी नाथू, जिसके हम डेली कस्टमर थे, अपने मैले कटके से हमारी टेबल साफ़ कर रहा था। उसका कटका पहले लाल धारीवाला सफ़ेद दरी जैसा रहा होगा लेकिन फ़िलहाल वो मठमैले रंग का हो गया था। इसलिए पता नहीं कि वो टेबल साफ़ कर रहा था या.…बीए पास नाथू की नजर टीवी पर थी और हाथ टेबल पर। उसने न्यूज देखते ही हमसे पूछा कि मैडम, "ये रघुराम राजन कौन है?" मैंने कहा,"यह हमारे रिज़र्व बैंक के नए गवर्नर है। जिन्हें 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहाकार के रूप में नियुक्त किया था।" यह सुनते ही नाथू की जिघ्यासा बढ़ गई उसने फिर पूछा यह सलहाकारलोग क्या करते है? मैंने कहा, "यह लोग समय-समय पर मंत्रिलोगो को सलाह देते है। कौन-सी योजना बनानी चाहिए, किस योजना से जनता का कम सरकार का ज्यादा फायदा होगा, सरकारी फंड को कैसे अपने हित के लिए काम लाना चाहिए, वगैरह, वगैरह।" मेरा जवाब सुनते ही नाथू की खोपड़ी एकदम से सोचने लगी। उसने आशंकित भाव से मुझसे कहा, "अच्छा! तो मैडम क्या इन्ही लोगो की सलाह की वजह से नेतालोग ऐसा-वैसा कुछ भी पीलान बनाता है।" इतना कहने के बाद बगैर मेरे जवाब का इंतजार किए वह चिढ़ते हुए फिर बोलने लगा, "क्या इसी रघुराम राजन की सलाह की वजह से टमाटर-कांदा के भाव आसमान को चढ़े है?  ट्रेन की टिकिट में हमको ज्यादा पैसा देना पड़ता है? क्या इसी की सलाह की वजह से 5 रुपए का वडापाव 10 रुपए का हो गया है?" मैंने सकपकाते हुए नाथू की ओर देखा और अपने पूरे ज्ञान के जोर पर जवाब देने की कोशिश की। "अरे, नाथू रघुराम राजन शिकागो यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रह चुका है। राजन भारत के साथ-साथ अमेरिका का भी नागरिक है। उसने बहुत सारा किताब भी लिखा है।" इस से पहले की मैं आगे अपनी बात पूरी कर पाती नाथू बोल पड़ा, "शिकागो यूनिवर्सिटी किधर है?" मैंने बताया अमेरिका। उसने झट से कहा, "वो ओबामावाला अमेरिका।" मैंने हम्म में जवाब दिया। तब नाथू फिर बोल पड़ा, "ओह्ह! तो यह साहब अमेरिका में पढ़ाते थे। पढ़ाते थे मतलब उधरिच रहते भी होएंगे। क्योंकि अमेरिका से भारत तो सात समुंदर दूर है न! रोज थोड़े न आ-जा सकते होएंगे। तो यह कैसा अपना देश का लोग को, उनकी जरुरत को समझेगा? इसीलिए तो ऐसा अकडमबकडम सलाह देके इसने हमलोग का पॉकेट ही खाली कर डाला। अभी इसको रिज़र्व बैंक का काम क्यों दिया? इसने वहां भी गड़बड़ सलाह दिया तो? हमारी जेब खाली करने की सलाह देने के बाद इसने रिज़र्व बैंक का तिजोरी खाली कर दिया तो?" फिर थोड़ी देर अपने बुद्धिमान दिमाग को खुजलाने के बाद नाथू फिर बोला,"ये अमरीका का भी नागरिक है। ओह्ह्ह. . . इसीलिए तो अपना रूपया का कीमत उनलोगों का डॉलर के मुकाबला कम ही होता जा रहा है। ये उस देश का सोचेगा या इस देश का? नागरिक तो यह दोनों काइच है।" नाथू की देश चिंता देख मैंने उसे कहा, "2008 में वैश्विक वित्तीय संकट की सबसे पहली भविष्यवाणी करनेवाले रघुराम राजन ही थे।"  नाथू ने मेरी बात पर मुस्कुराते हुए कहा,"भविष्यवाणी तो रोड पे बैठा वो तोतावाला पंडित बी अच्छा करता है तो क्या अबी उसको देश का प्रधानमंत्री बना देने का?" मैंने नाथू को समझाने के लिए कहा,"नाथू, यह अपना देश का बहुत बड़ा और धुरंदर इकोनॉमिस्ट बोले तो अर्थशास्त्री है।" नाथू तुरंत बोला, "वही न जो अपना प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री है।" मेरे हाँ, बोलते ही उसके चेहरे का रंग एकदम से बदल गया और वह चिढ़ते हुए निराशा के साथ बोला, "फिर तो जानेइच दो। अबतक 2 अर्थशास्त्री मिल के देश का अर्थशास्त्र बिगाड़ रहा था। अब ये तीसरा आके आम आदमी को किधर पटकेगा मालूम नहीं।"   
                                                                                                           - सोनम गुप्ता  
प्रकाशित लेख का कट-आउट