Friday, September 27, 2013

सोचा न था!

इतनी बेरूखी तुमसे हासिल होगी,
सोचा न था,
जिसके बाहों में जिंदगी गुजारने की ख्वाइश रही
अबोला होगा उनसे भी कभी
सोचा न था,
ऐसा अविश्वास तुम्हे हमपर होगा
तार-तार खींच उठेंगे
सोचा न था,
मुझसे एक पल की दूरी तुम्हे मंजूर न थी
उम्र भर के लिए अकेला छोड़ोगे
सोचा न था,
जिन आंखों में मेरे बसते थे तुम सुब-हो-शाम
उनमें ही आंसू भर दोगे
सोचा न था,
हर अलफ़ाज़ मेरे मिश्री-सी लगती थी तुम्हे
ये भी कभी अप्रिय लगेंगे
सोचा न था,
दर्द में भी जिसका नाम तुम्हारी सांसों में था
वो नाम धूमिल होगा कभी
सोचा न था,
मुझे 'जान' कहनेवाला 
इस कदर मेरी जान तिल-तिल लेगा कभी
सोचा न था!  
        - सोनम गुप्ता 

Thursday, September 26, 2013

आडवाणी की पत्र लेखन-कला यानि खंबा नोचना

आखिरकार महीनों तक अपनी टीआरपी मोदी के नाम पर बढ़ाने के बाद, करोड़ों रुपए के कॉन्ट्रैक्ट साइन करवाने के बाद, देश को धर्म के नाम पर बांटने के बाद नमो को अअनुमानित, बेहद अचंभित तौर से पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। आडवाणी बाबा को ये बात हजम नहीं हो रही। शायद उनका हाजमा ख़राब हो गया है। दरअसल वो कई वर्षों से पीएम की कुर्सी का सपना खा रहे थे। मेरा मतलब है देख रहे थे। सो एक ही चीज लंबे समय तक ज्यादा मात्रा में खाने से कभी-कभी हाजमा बिगड़ जाता है। उनके जोड़ीदार अटल बिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद से तो उनका सपना उछाल मारने लगा था। उसके बाद वे अलग-अलग डिपार्टमेंट के मंत्री तो बन गए। लेकिन प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। 
         क्लास के मोनिटर से वो टीचर तो बन गए लेकिन पूरे स्कूल का प्रिंसिपल नहीं बन पाए। और आज जब उनकी टीम में से किसी एक को प्रिंसिपल पद के दावेदारी के लिए आगे करने की बारी आयी तो वे सबसे सीनियर होने के नाते अपने कंधे उचकाते हुए आगे आए। लेकिन ही उन्हें और  ही उनके ऊचकते हुए कन्धों पर किसी ने ध्यान दिया। वे महफ़िल में उत्साहित होकर, सज-धज कर खड़े थे, कि मंच पर किसी और का नाम अद्यक्ष महोदय ने घोषित कर दिया। तब उन्हें सहसा गहरा धक्का लगा। जब हमे कोई पुरस्कार मिलने की संभावना होती है, तो उसके मिलने पर हम चिडचिडा जाते हैं। जिसे मिला उसकी योग्यता को दाएं-बाएं कर नापने लगते हैं। और यहां तो प्रतियोगी को अपनी जीत की संभावना नहीं बल्कि पूरा-पूरा विश्वास था। लेकिन उनेक देखते ही देखते उनके ही कक्षा का उनका ही एक स्टूडेंट उनसे आगे निकल गया। और सीधे प्रिंसिपल के पद का दावेदार हो गया। भाई! तिलमिलाहट तो होनी ही थी। पहले अपना साथी और अब अपना स्टूडेंट। कायदे से देखा जाए तो नंबर बाबाजी का ही था। लेकिन आज-कल राजनीति में युवा वर्ग पर ख़ास ध्यान देने का ट्रेंड चला है। ऐसे में नमो पार्टी में सबसे होनहार युवा दावेदार हैं। ऐसा नहीं कि बाबाजी होनहार नहीं या युवा नहीं। बाबाजी भी युवा हैं, लेकिन थोड़े पूराने युवा।

          खैर, प्रिंसिपल की रेस से बाहर निकलने की वजह से बाबाजी नाराज हो गए हैं। अगली बार पता नहीं उन्हें मौका मिले मिले। अब जाते-जाते कम-से-कम 1 बार तो प्रधान कुर्सी पर बैठ जाते। उन्होंने सीधे अपने स्टूडेंट को कुछ बोलते हुए टीचर्स असोसिएशन के अद्यक्ष को पत्र लिखकर अपनी रुसवाई जाहिर की। बाबाजी 86 साल की उम्र में अपने जवां सपनो को पूरा करने के लिए देश के लंबे-लंबे सड़कों पर कई दफा रथ लेकर घुमे। फिर भी उन्हें किसी ने राजा नहीं माना। बाबाजी को कौन बताए कि अब देश की जनता रथ पर नहीं बल्कि दंगे और 'मिरेकल्स' पसंद करती है। उन्हें जरुरत पड़ने पर तलवार निकलनेवाले राजा चाहिए कि बयान देनेवाले राजा। उन्हें वाणी नहीं मोदी चहिए। 
      बाबाजी शुरू से ही नमो के नाम से असंतुष्ट थे। वे वरिष्ठ हैं। वे अनुभवी और समझदार हैं। इसलिए बाकि सदस्यों ने सोचा देर-सबेर वे अपने शिष्य को अपना ही लेंगे। लेकिन गुरूजी की महत्त्वकांक्षा शिष्य की उन्नति की ख़ुशी से बड़ी निकली।  वे अपने तत्तकालीन पदों से इस्तीफा देने से लेकर पत्र-लेखन, जैसे तमाम खंबे नोचने लगे।  वे असली लड़ाकू हैं। अपने प्रतिद्वंदी को कुर्सी से खींच लाने में भी उन्हें कोई गुरेज नहीं होगा। हमे बाबाजी से एक चीज़ तो सीखनी ही चाहिए वो है स्टैंड लेना। वो टिके हुए है, लगतार अपने स्टैंड पर। बिलकुल अटलअचल।  वे अब भी उम्मीद में हैं। और अब भी लड़ने से पीछे नहीं हटेंगे। देश के लिए नहीं भाई! पीएम की कुर्सी के लिए।  हो सकता है वे एकदम आखिरी में भावनात्मक चाल चले, और पीएम की कुर्सी के दावेदारी का उम्मीदवार बनने को अपनी आखिरी इच्छा घोषित कर दें।   
  
- सोनम गुप्ता