Saturday, May 25, 2013

कर्मशीलता से मिलता ईश्वर



      

      हमारी संकीर्ण सोच और समझ के चलते ही हमारे देश में फर्जी धर्म गुरुओं ने जन्म लिया है। जो अपने आप को ईश्वर समझते है और लोभ और ऐश्वर्य से दूर रहने की सलाह देनेवालें यह गुरु खुद ऐ.सी. में रहकर, विदेश घूमते है। यहाँ मेरा मकसद किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुचाना नहीं है। लेकिन अगर सचमुच यह पण्डे-पुजारी इश्वर के दूत होते तो, आज ऑनलाइन पूजा, ग्रहशांति, राशिशान्ति जैसे धर्म को शर्मशार करनेवाली गतिविधयां नहीं हो रही होती। 
      कुछ साल पहले इलाहाबाद में मैं संगम देखने पहुंची तो वहां पण्डे-पुजारियों ने इस कदर घेर लिया मानो कोई गुड की ढेलियां मक्खियों के बीच गिर गयी हो और यह पण्डे पुजारी मक्खियों की तरह उसे चूसने के लिए भिन -भीना रहे हो। कोई कहता मैं मात्र 2000 में पूरा पिंड दान करवा दूंगा, 1000 दे दो आपके सभी ग्रहों को ठिकाने लगा दूंगा तो कुछ उनमें से जो अभी इस व्यापार में नवसिखियाँ है वह 500 में ही हमारे पूर्वजों का बेडा पार करवाने को तैयार बैठे थे। इन सब से जैसे-तैसे बाहर निकल जब नाव में बैठकर संगम देखने पहुंची। तब मेरी नजर उन धर्म भीरुओं पर गयी जो हजारों रुपैये देकर वहीँ 10 रुपयें की नारियल जिसे सुबह से 10 लोगों ने हाथ में पकड़ कर अपने पूर्वजों के मोक्ष की प्राथना की उसी से बेहद संतुष्टता के साथ अपने घर परिवार की शांति ईश्वर से मना रहे थे। यह तथाकथित पूजा यही ख़त्म नहीं होती। अब बारी है बड़े खर्चे की। यह पुजारी लोग आपको अंत में मन में किसी प्रकार के दान करने का संकल्प लेने के लिए कहेंगे। जिसकी सूची में घूम-फिर कर इनके ही फायदे की बात होगी और सबसे मजेदार बात यह होती है कि आपके वचन लेने के बाद यह अपनी एक और सुविधा सामने रखते है। जैसे किसी मॉल में ज्यादा रुपयों की खरीददारी करो  तो उसे घर तक पहुचाने की सुविधा भी अंत में दी जाती है। आप जो भी दान करना चाहे, चाहे वो पंडितों को भोज हो या गाय माता का दान..या कुछ और उसके लिए आप एक बड़ी राशी इन्हें दे देंगे। तो यह उसे आपकी इच्छा अनुसार तथाकथित रूप में दान कर देंगे। जिस से आपको यहां -वहां  भटकने की चिंता भी नहीं होगी। फिर चाहे उन पैसों से रात को यह शराब पी कर मस्त मिले या चरस-गांजे की चुस्की लगा रहे हो। हम सज्जन व्यक्ति तो सभ्यता और परम्परा के चादर को इस कदर ओढ़ रखे है कि अपने मृत पूर्वजों को शांति देने के लिए हजारों रुपैयें दे कर बिना किसी सवाल-जवाब के चलते बनते है। फिर यह उन पैसों से क्या करे उस से हमे क्या! हमारी जेब से तो धर्म के नाम पर पैसा निकला है और सज्जन व्यक्ति ज्यादा सवाल-जवाब नहीं करते। अगर आप इन पंडितों के झांसे में नहीं आते और इनके द्वारा दी जाने वाली किसी भी सुविधा का इस्तेमाल नहीं करते तो यह आपको खरी-खोटी सुनाने में भी देरी नहीं करते। यहीं इनकी नैतिकता का प्रमाण मिल जाता है। ईश्वर  के करीब ले जाने का दावा करनेवाले यह लोग इस व्यापार के लिए बखूबी प्रशिक्षण लेते है। इन्हें पता होता है कि किस तरह के इन्सान को किस प्रकार अपने झांसे में लेना है। कैसे उन्हें भावनाओं के जाल में उलझाना है। अगर यह धर्म-गुरु इतने ही पवित्र है तो मोक्ष दिलाने का दावा करनेवाले यह लोग पैसो के मोह जाल में क्यों अटके है?
        रामायण में सच्चे संत, महात्मा को कपास कहा गया है। उसके चरित्र को श्वेत और पाक बताया गया है। संत वही होता है जो अपने स्वार्थ को भूल कर दूसरों के दुखों को दूर करने का हर भरसक प्रयास करे। लेकिन आज-कल ढूंढ़ने से भी ऐसे साधू-संत मिलना मुश्किल है। हमे अपने धर्म को बोझ की तरह नहीं बल्कि प्रेम की तरह पालना चाहिए। आस्था के दामन को ढोंग से मैला करने की बजाय दिल में सच्ची भावनाएं, व्यवहार में नैतिकता, व्यक्तित्व में सहजता अपनाना चाहिए। कोई जन्म से संत या पंडित नहीं होता। आपका आचरण, आपके कर्म आपको पंडित बनाते है। जाति से पंडित बने कंठीधारी तो केवल धन कमाने के लिए अपना पांडित्य जताते है। ईश्वर की पूजा फूल-माला और मंदिरों में घंटों लाइन लगाने से नहीं होती। उनकी सेवा के लिए उनके कथनों, उनके संदेशों को हमे आत्मसात करना चाहिए।  अपने बच्चों को कर्म को ईश्वर कहनेवाली गीता का ज्ञान दे। दिन में भले ही हम 2 बार धुप बत्ती न जलाये। लेकिन अगर एक बार हम रामायण और गीता के कुछ पन्ने पढ़ उन्हें अपने जीवन में उतारे तो शायद इस से बड़ी पूजा दूजी न होगी। मेरा मानना है, कि ईश्वर  मंदिरों में नहीं बल्कि सकारात्मक विचारों, ढृढ़ संकल्पों, मानवता और कर्मशीलता से मिलते है।
                                        -सोनम प्र. गुप्ता 

Thursday, May 23, 2013

जेट पर सवार हमरे अखिलेश भैय्या

जेट पर सवार हमरे अखिलेश भैय्या 


अखिलेश भैय्या वाशी तक आए। यह खबर पहले ही मालूम होती तो अम्मा (दादीजी) से कहकर चबैना मंगवा लेती। पिछले साल शादी में गए थे, तब जो दुपट्टा घर में छूट गया वह भी साथ आ जाता। सोचा था भैय्या अपनी साईकिल पर सवार होकर आएंगे। इतना सामान कैसे लाते। लेकिन भैय्या तो सीधे जेट प्लेन में बैठकर घर के बगल में आ पहुंचे। पहले से खबर होती तो मेरे छोटे-मोटे कितने ही सामान घर से सुरक्षित जेट की सवारी करते हुए आ जाते। भीतर न सही ऊपर छत पर या टॉयलेट के पास तो रखवा ही सकते थे। ट्रेन की टिकिट के लिए हो रही मारा-मारी के बीच कब से कितने ही महत्त्वपूर्ण सामान उत्तर प्रदेश से मुंबई नहीं पहुंच पाए हैं। भैय्याजी को अपने मुंबई आने की खबर का मेरे गांव में भी ढिंढोरा पिटवाना चाहिए था। जरूरतमंद लोग इसी बहाने बंबई तक खुद पहुंचने या अपने परिजनों तक कुछ पहुंचाने की कोशिश तो करते। कम-से-कम 77 वर्षीय मेरे छज्जू चाचा की मुंबई घूमने की 60 साल पुरानी अभिलाषा तो पूरी हो जाती। ट्रेन में जो गर्दी है उसमें तो डर लगा रहता है कि कहीं महाराष्ट्र की सीमा में पहुंचने से पहले ही छज्जू चाचा कहीं परलोक की यात्रा में शामिल न हो जाएं। एम्. ए. पास रमेश पिछले फरवरी महीने से ही रेल के चालू डब्बे में बैठकर यहां मुंबई आना चाहता है, ताकि यहां के किसी फुटपाथ पर भाजी बेचने का ठेला लगा सके। अखिलेश भैय्या ने बताया होता तो वह भी प्लेन के किसी पंखे-वंखे से लटककर यहां पहुंच जाता। 26-28 घंटे लटकने से तो दो-ढाई घंटे लटकना ज्यादा सुविधाजनक होता। मैं समझ सकती हूं, कि जेट में जगह की कमी है। मुंबई में भी जगह की कमी है। इसीलिए तो उत्तर प्रदेश भवन मुंबई के बजाय बगल के नवी मुंबई में बनाया गया है। खैर, इसके उदघाटन में फलाना-ढिमका नेता का आना जरुरी था। हमारे यूपी के सभी लोग जानते हैं कि पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जाता। अपने अखिलेश भैय्या तो ठहरे डेढ़ सयाने गुड़ खाएं और गुलगुलों से परहेज करें, ये यूपी की मिट्टी का अपमान होता। अखिलेश भैय्या मिट्टी के माधो नहीं हैं। इसलिए भैय्या मिट्टी की परम्परा का सम्मान करते हैं और सबको ये सीख भी देते हैं कि घर में रहकर घरवालों से परहेज नहीं किया जाता। वो घर चाहे अपना घर हो, सरकारी घर हो, राजधानी का घर हो, लखनऊ का घर हो, मुंबई का घर हो या फिर प्राइवेट बोईंग विमान ही क्यों न हो। असली मजा तो अपने सब के साथ आता है। पहलवान कम मास्साब पप्पा ने सब सिखाया है। चच्चा हो, चच्ची हो, भैय्या हो, भाभी हो, डिम्प्पी हो, शिम्प्पी हो, भैय्याजी सबको संभालने का जतन करते हैं। दामाद में बड़ा दम होता है। पप्पा की सीख काम आई। जिसको भी ला सकते थे भैय्या जेट में सबको समेट लाए। रिश्तेदार तो रिश्तेदार सब बड़े और जानेमाने पत्रकारों को भी समेट लाए। पत्रकारों को छोड़ आते तो 2014 के चुनाव के दौरान अपनी साईकिल 8 कॉलम के किसी कोने में ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलती। मेरे चाचाजी ने कहा काश! हम भी किसी बड़े अखबार के पत्रकार होते। इसी बहाने जेट प्लेन का सफ़र तो कर लेते। मैंने भी सोचा काश! चाचाजी किसी नामी अखबार के पत्रकार होते तो इसी बहाने मेरे गरीब खाने में अखिलेश भैय्या के चरण तो पड़ते। लेकिन फिर भी हिम्मत करके मैं उनसे मिलने और उन्हें अपने घर बुलाने जरुर जाउंगी। आखिरकार, राहुल भैय्या की तरह उनका भी चुनावी टारगेट युवा पीढ़ी है। सोच रही हूं कि अखिलेश भैय्या के उत्तर प्रदेश भवन के कार्यक्रम में पहुंचकर एकाध लेपटॉप मैं भी लपक लूं। मैं भी युवा हूं और ग्रैजुएट भी हूं। एक लेपटॉप पर तो अपना हक़ भी बनता है। हम तो संतोषी किस्म के इंसान हैं। लेपटॉप नहीं तो ना सही। अगर साईकिल ही नसीब हो जाए तो हम उसी से काम चला लेंगे। भागते-भागते कुछ मिले न मिले साईकिल तो मिल ही सकती है।  
                            -सोनम प्रगुप्ता