Tuesday, January 27, 2015

क्यों नहीं पुरुष संगठन निकालते मोर्चा?


- सोनम गुप्ता 
 
किसी औरत ने  कोई अपराध किया तो स्त्री शक्ति संगठन, महिला आयोग, विमेन एम्पावरमेंटवाले मोर्चा लेकर उस गलत करनेवाली औरत के घर, दफ्तर, मोहल्ले, जहाँ पायेंगे वहां मोर्चा निकालकर उसे उसके किए के लिए शर्मिन्दा करते हैं। गलत औरत को सही दिशा दिखाने, उन्हें सबक सिखाने के लिए आए दिन स्त्री संगठन के मोर्चे निकलते रहते हैं। लेकिन जब कोई आदमी गलती करता है तब कोई पुरुष संगठन उस आदमी का घेराव क्यों नहीं करता? क्यों नहीं जाकर वे उसे समाज में पुरुषों की छवि बिगाड़ने का दोषी ठहराते हैं? क्यों बीच सड़क पर उस आदमी को अपने वर्ग के लोगों की बदनामी करने के लिए सज़ा नहीं देते?
  सिर्फ इसलिए कि औरत इज्जत है, उसके गलत करने से घर, परिवार, समाज की इज्जत पर बट्टा लग जाता है, लेकिन आदमी बलात्कार करके भी जाए तो उसके घर के बाहर किसी पुरुष संगठन की लामबंदी देखने को नहीं मिलती।
       
मुंबई में एक संस्था पुरुषों के हित के लिए काम करने का दावा करती है। जैसे महिलाओं के हित उनके विकास, उनके संस्कारों को सहेजने के लिए महिला संस्थाएं हैं, कुछ उसी तरह का। लेकिन ज्यादातर महिला संगठन स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने के साथ ही गलत औरतों को भी सबक सिखाने का काम करती है। वे केवल अत्याचार करनेवाले पुरुषों के खिलाफ मोर्चा खोलती हैं बल्कि साथ ही गलती करनेवाली महिलाओं को भी अपने निशाने पर लेती हैं। लेकिन मुंबई, दिल्ली समेत देशभर में  काम करनेवाले कई पुरुष संगठनों ने केवल घरेलू हिंसा से पुरुषों की होनेवाली मौत, पारिवारिक दबाव और अकेलेपन को उजागर करने के अलावा पुरुष वर्ग के लिए और कोई कार्य नहीं किया है। केवल कुछ आंकड़े दिखाकर उन्हें और भी अकड़ने का मौका दिया है।
   जबकि ऐसी संस्थाएं किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधत्व करती हैं, इस नाते उनकी गलतियों पर भी उन्हें सबक सिखाने का बीड़ा भी ऐसी समाजसेवी संस्थाओं को उठाना चाहिए।
    क्यों नहीं किसी आदमी के बलात्कार करने के बाद गुस्साई जनता से अलग कोई पुरुष संगठन उसे अपनी इज्जत और सम्मान पर आंच की तरह देखता है? क्यों नहीं पुरुषों का तबका उस एक गंदे मछली के खिलाफ एकजुट होकर अपनी आवाज़ उठाता है?
जब किसी एक आदमी पर ऊँगली उठती है तो पुरुष वर्ग उसे अपने मान-सम्मान और विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगता हुआ क्यों  महसूस नहीं करता?
   अपराध करनेवाली महिला के प्रति महिलाओं का रुख़ बेहद तीखा होता है और होना भी चाहिए। उन्हें हमेशा लगता है कि इस एक महिला की वजह से उनका पूरा वर्ग शर्मशार हुआ है, इसलिए वे खुद उसे सजा देने के लिए आगे आती हैं। तो क्यों पुरुष वर्ग ऐसे मुद्दों पर मोर्चे नहीं निकालते?
    यहाँ भी लिंग भेद का प्रभाव साफ़-साफ़ देखने को मिलेगा। जब एक टैक्सी चालाक ने गलत किया तो पूरा टैक्सी यूनियन उसके खिलाफ सड़क पर उतर आया। लेकिन वहीं क्या किसी पुरुष संगठन ने सामने आकर मोर्चा संभाला कि उस बलात्कारी ने हमारे पुरुष वर्ग का नाम ख़राब किया है इससे हमारी इज्जत पर आंच आई हैं? क्योंकि आज भी इज्जत केवल महिलाओं से जुडी वस्तु बनी हुई है। पुरुष अपराधी हो सकता है लेकिन उसका अपराधी होना उसके वर्ग के लिए इज्जत का मुद्दा नहीं होता। दरअसल पुरुषों की अपने वर्ग के सम्मान के प्रति कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं होती। क्योंकि इज्जत का बीड़ा इस पित्र्सत्तात्मक समाज ने लड़कियों के कन्धों पर जबरन थोप रखा है।
   बलात्कार होने पर महिला की नहीं पुरुष की इज्जत चली गयी। जब तक ऐसी नई विचारधारा नहीं जन्मेगी तब तक नई पीढ़ी को बलात्कार करना जुर्म नहीं लगेगा।
बारी है खुद पर जिम्मेदारी लेने की। जरुरत है पुरुष वर्ग के अपने तबके के प्रति संवेदनशील होने की। जब घर में बेटी पैदा होती है, तो तुरंत उसमें संस्कार पिरोने का काम माँ को सौंप दिया जाता है, क्योंकि वह खुद एक स्त्री है और अपने लिंग से जुडी हर छोटी-बड़ी बात को वह अपनी बेटी को सहजता से समझा सकती है। इसी तरह पिता को भी अपने बेटों की जिम्मेदारी लेनी होगी। उन्हें अपने विपरीत सेक्स के प्रति अधिक से अधिक संवेदनशील बनाना होगा।

पुरुष संगठन उतरे सड़कों पर