Saturday, August 31, 2013

भ्रस्टाचार का काला मक्खन


 इन दिनों महाराष्ट्र की दहीवाली हांडिया चर्चा में हैं। मथूरा से सीधे दही मुंबई पहुंचा और फिर यहां की मटकियों में बैठकर कई मंजिला ऊपर बंध गया। माखन की हांडिया श्री कृष्ण ने अपने गरीब गोकुलवासी मित्रों के लिए फोड़े थे। यहां उनकी पूंछ पकड़कर नहीं पूंछ नहीं बल्कि मटकिया पकड़कर अपने-अपने स्वार्थ साधने के लिए हांडिया फोड़ी जाने लगी है। मक्खन थोडा महंगा है इसलिए दही से काम चलाया जा रहा है। वैसे भी आज-कल के बाजारू मक्खन उतने चिकने नहीं होते। जितने हमारे नेताओं की बाते, वादे और मुलाकाते चिकनी-चुपड़ी होती है। बहरहाल देश का सारा मक्खन चमचो ने हथिया लिया है। वे बिचारे करे भी क्या। बिना मक्खन लगाए कोई काम बनता भी तो नहीं। फाइल पास करवानी हो, ठेका लेना हो, जमीन खरीदना हो, इमारत बनानी हो, टेंडर पास करवाना हो, मोर्चा निकलवाना हो, कार्यक्रम करना हो, पुरूस्कार लेना या देना हो, आदि-आदि के लिए मक्खन का बहुत इस्तेमाल होता है। इसकी खपत बड़े-बड़े लोगों के बीच बढ़ गयी है। इसलिए इसकी कीमत और बाजार में इसकी कमी दोनों में लगातार बढ़ोतरी हुई है। नेता, अफसर, मंत्री, कर्मचारी सबके लिए कान्हा का यह मक्खन बेशकीमती है। इन्होने बाजार से सारे मक्खन खरीद लिए और अपने गोदामों में भर लिए। अब ख़रीदे या चुराए या हथियाए ये तो वो ही जाने। सब इसे संभालकर अपने घर, दफ्तर जहां सुविधा और आवश्यकता हो अपने सिकहर पर टांगे रखते है। वैसे आज-कल सिकहर और मटके दोनों का चलन कम हो गया है। आंगन में इस पर टंगे होने से लोगो को आपके पास कितना मक्खन है इसकी जानकारी होने का डर बना रहता है। इसलिए लोग इसे अब जेब में, ब्रीफकेस में, लिफाफो में, जुबानो पर छिपाकर रखते है। आवश्यकता पड़ने पर तुरंत इसका इस्तेमाल पूरी कंजूसी के साथ करते है। ख़त्म हो गया तो! अभी तो काम का एक ही पड़ाव पूरा हुआ है। आगे के काम के लिए और भी तो मक्खन लगेगा। इसलिए इसके इस्तेमाल के वक़्त कंजूसी बरतना बेहद जरुरी है। हर समय, हर काम के लिए मक्खन जरुरी हो गया है। समय की मांग है। और समय की मांग से भला कोई निबट सकता है क्या?
      भले ही अब मक्खन मटकों में नहीं रखे जाते हो। लेकिन गोकुलाष्टमी के दिन मटकों की याद मुंबईकरो को खूब आती है। नेताओं, नगरसेवको, एमपी, एमएलए सब अपनी-अपनी मटकी सजाते है। आम जनता के नाम की मटकी। बड़े-बड़े पुरूस्कार की मटकी। चुनाव की मटकी। लाभ और स्वार्थ की मटकी। भोंडे नृत्य और कानफोडू गानों की मटकी। भीड़ की, चोर-उचक्कों की मटकी। एक सांसद ने कहा कई गरीब घर के बच्चे मटकी फोड़ने आते है। इसलिए इस बार इनाम की राशि दुगुनी कर दी है। अब इनाम की राशि दुगुनी तो दुगुना चंदा। दुगुना भीड़। दुगुना वाह-वाही और दुगुना वोट। धर्म जागृतिवालो ने कहा लड़कियों का मटकी फोड़ना धर्म के खिलाफ है। लड़कियों का फोड़ना अनुचित है। लेकिन मटकियों के सहारे राजनीति करना उचित है। कृष्ण के नाम पर भ्रस्टाचार की लीला करना उचित है। भीड़ उमड़ी तो नेता को कृष्ण से अथाह प्रेम हो गया। बहती गंगा में हाथ धोने से फ़िल्मी सितारे कैसे पीछे रहते। भीड़ देखी और फिल्म का प्रमोशन भी लगे हाथो कर लिया। अब एक पंथ दो काज होते है तो इसमें बुराई ही क्या! तो क्या हुआ अगर ये मटकिया आस्था की मटकिया हो। आस्था में भी नयापन जरुरी है। आस्था का आधार भी बाजार पर टिका हुआ है। आस्थाएं भी बाजार में बिकने और खरीदी जाने लगी है।      
          सत्ता जब मथती है तो भ्रस्टाचार का मक्खन निकलता है। इसी मक्खन में से एकाध बूंद गोकुलाष्टमी के दिन मटकों में भरा जाता है। ये हांडिया तो गली के नौजवान पूरे जोश और उल्लास के साथ फोड़ देते है। लेकिन भ्रस्टाचार के मक्खन से भरी मटकिया कभी नहीं फूटती। कोई किसन-कन्हैया इन मटकियों तक नहीं पहुंच पाता। ये मटकिया बहुत ऊपर बंधी हुई है। इतने ऊपर की जहां आम आदमी की नजर तक नहीं पहुंच पाती। सत्ता के घोटालों, काले धनो, झूठे वादों, दंगे-फसादोंभ्रष्ट आचारों-विचारो के काले मक्खन से ये मटकिया भरी होती है। ये मटकिया संसद भवन से लेकर जनपथ के बंगलो के भीतर सिकहरो पर लटकी है। ये सिकहर रस्सी से नहीं बल्कि जनता के चमड़ी से बने हुए है। हम सड़क पर बंधे दही के मटकों को फोड़ कर, फूटते देखकर खुश है। तालियां बजा रहे है। हरी नाम जप रहे है। मटकियों के बहाने बुराइयों को फोड़ने की आत्मसंतुष्टि से संतुष्ट हुए जा रहे है। हमे काले मक्खनवाले मटकियों की कोई फिकर नहीं है। हम उसकी तरफ देखना ही नहीं चाहते। उसके लिए मानव पिरामिड नहीं बनाना चाहते। हम उसके लिए एकजुट नहीं होना चाहते। एक-दूसरे के कंधे को थाम बेहद ऊंची पिरामिड बनाकर हम क्यों उस काले मक्खनवाले मटकी को नहीं फोड़तेहम क्यों अपनी एकता को बुराइयों की मटकियां फोड़ने के लिए नहीं संजोते?   
- सोनम गुप्ता 

दबंग दुनिया में प्रकाशित व्यंग्य निबंध का कट-आउट (31/08/13)




Tuesday, August 27, 2013

शाहूगिरी बनाम बूट पोलिश की जय हो!


               झारखंड के योगेंद्र शाहू ने कृषि मंत्री बनने के लिए किए गए संघर्षो के राज मंच पर खोल दिए। तो सब जगह हू-हा मच गया। सबकी आंखे चौड़ी हो गयी। कांग्रेसवालों के नथुने गुस्से से फुंफकारने लगे। विपक्षी दल को चुटकी काटने का मौका मिल गया। उसे गर्लफ्रेंड की तरह चुटकी काटने में बड़ा मजा आता है। मौका मिलते ही वह अपने प्रेमी-कम-एटीएम मशीन को लपक के चुटकी काटती है। थप्पड़ से ज्यादा चुटकी चुभती है। कचोटती है, दुखती है। शाहू कृषि मंत्री बनने पर अपनी ख़ुशी को संभाल नहीं पाए। और सबके सामने अपने पापड़ बेलने की बात कह दी। दिल्ली में अपने 15 दिनों की सेवा-साधना के भी राज खोल दिए। ये उन्होंने ठीक नहीं किया। बड़े-बुढो ने कहा है, नेकी कर और दरिया में डाल। उन्होंने दिल्लीवासियों की जो सेवा-पूजा की उसे जग जाहिर करने की क्या जरुरत थी। अब बड़े-बूढ़े नाराज हो गए तो! लगता है बाकि नेताओं की तरह वो इस नेकी को दरिया में डालना भूल गए। दरअसल दिल्ली से झारखंड लौटते वक़्त उन्हें रास्ते में दरिया मिला नहीं होगा। इसीलिए वे ऐसा करने से चूक गए। अरे, दरिया नहीं मिला तो नदी या नाले में ही डाल देते। नेकी ही तो थी। कहीं भी आसानी से खप जाती। लेकिन उनका ये सच बोलने का बड़प्पन राजनीति में कैसे खपेगा? वैसे शाहू ने बाद में सच को यानि अपने बयान को मजाक कहकर टाल दिया। हमारे यहां बयान देकर उस से पलटने का अनुभव कमोबेश ज्यादातर नेताओं को है। यह अनुभव उन्हें राजनीति में परिपक्कव बनाने में सहायता करता है। आलाकमानो को उनके पलटने के गुण से वाकिफ करवाता है। अपने वादों, बयानों से पलटने का गुण भारतीय राजनीति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुण है। उतना ही महत्त्वपूर्ण जितना बेटे की शादी में ज्यादा-से-ज्यादा दहेज़ घर लाने का गुण। खैर, नेता बयान देते है और फिर उसे झूठ कह देते है। या मीडिया की तोड़ने-मरोड़ने की आदत को जिम्मेदार ठहरा देते है। नेता जब सच कहता है तो मान लेना चाहिए कि उसका हर एक शब्द झूठ की पीठ पर सवार है। और जब वह किसी तथ्य को पूरी तरह झूठ कह दे तो संभवत: हो सकता है कि उसमें थोड़ी-बहुत सच्चाई हो। देश की लोकतांत्रिक राजनीति में फ़िलहाल सच का थोडा अभाव चल रहा है। सच को अफोर्ड करने की क्षमता हमारे राजनीतिज्ञों के पास नहीं है। प्याज और टमाटर की तरह सच भी दिन-ब-दिन महंगा होता जा रहा है। जिस तरह आम आदमी प्याज-टमाटर और बहुत सारी जरुरी चीजों को अफोर्ड नहीं कर सकता। उसी तरह हमारे नेतागण सच को अफोर्ड नहीं कर सकते।  
       गौरतलब है कि शाहू ने दिल्लीवालों के जूते चमकाने की बात भी जोश में कह दी। वैसे इसमें भी कोई ज्यादा हायतोबा मचाने की बात नहीं है। शाहू ने तो सिर्फ कहा है। माया मैडम के जूते तो मीडिया के कैमरों के सामने बड़े-बड़ो ने चमकाए है। हम समतावाद में विश्वास रखते है। जो नीचे है उसे ऊपरवालो के जूते साफ़ करने ही पड़ते है। उसे बड़ो के जूते चमकाने ही पड़ते है। किसी विद्वान ने कहा है आदमी की पहचान उसके जूतों से होती है। जूते चमकेंगे तो आदमी भी चमकेगा। जिसके जूते चमके वो भी और जिसने जूते चमकाए उसका भी भाग्य चमकेगा। वैसे भी आम आदमी की कमर महंगाई ने इस कदर तोड़ दी है कि वह चाहकर भी ऊपर नहीं देख सकता। तनकर खड़ा नहीं हो सकता। ऐसे में उसकी नजर जूतों तक ही पहुंच पाएगी। और जब जूते चमकदार होंगे तो आम आदमी का भ्रम कायम रहेगा। जूतों की चमक में आम आदमी के आंसू खो जाएंगे। उसे नहीं पता चल पाएगा कि चमकते जूतों के भीतर इंसान है या भेड़िया। किसी ने हिम्मत कर कमर सीधीकर ऊपर जूतेवाले को पहचानने की कोशिश भी की तो वही चमकता जूता उस सीधे कमरवाले आदमी के मुंह पर पड़ते देर नहीं लगेगी। खैरशाहू के बयान पर जनता जोरदार ठहाके लगाकर हंस रही है। वह इसको ज्यादा सिरयसली नहीं ले रही। उसे पता है, मंत्री उसके वोट से नहीं बल्कि जूते चमकाकर ही बनते है। क्योंकि उसके वोट भी आज-कल पैसो पर बिकते है।      
- सोनम गुप्ता

दबंग दुनिया का कट-आउट