Monday, November 14, 2011

बच्चा पार्सल


आज लोकल डिब्बे में दो महिलाएं थर्माकोल के दो बड़े डब्बे ले कर बैठी थी...उसमें दोनों तरफ दो-दो १ के सिक्के जितना छेद था. और उपर डिब्बे में कटिंग कर उसपर पारदर्शी प्लास्टिक लगा हुआ था.
सभी औरते झांक-झांक कर उस डिब्बे के भीतर दिखने की कोशिश कर रही थी. पर कुछ समझ नहीं आ रहा था. थोड़ी देर बाद उस डिब्बे की मालकिन ने डिब्बे के ढक्कन को हलके से उठाया और उसमें हाथ डालकर मुस्कुराने लगी.
सभी औरते एकदम चौक कर उस डिब्बे में झांक रही थी. मैं काफी दूर बैठी थी इसलिए मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था... सभी के चेहरे पर उठते अलग-अलग भावों ने मेरी जिज्ञासा को जन्म दिया. और मैं उस डिब्बे के राज़ को जानने के लिए बेचैन हो गयी. तभी थोडा पास जाकर उस खिड़कीनुमा पारदर्शी प्लास्टिक से मैंने झाका तो उसमें कपडे लिपटे से दिखे...मुझे लगा कोई जानवर होगा. वैसे ही उस रहस्यमय डिब्बे से हलकी सी आवाज़ उठी जो अपने जाती-प्रजाति की सी लगी ..तब उस डिब्बे की मालकिन ने फिर से उससे खोला तब मैंने जो उसके भीतर देखा. उसे देखर मेरी आँखें खुली की खुली रह गयी. उसके भीतर एक बेहद दुर्बल नन्ही परी थी. जाहिर सी बात है की दुसरे डिब्बे में भी उसकी ही बहिन थी. कारण यह पता लगा की बचियाँ सातवे महीने में जन्मी है, इसलिए बेहद कमजोर है. दुर्भाग्यवश, पैसों की कमी के चलते वे टैक्सी या रिक्शा नहीं ले पाए...और मजबूरन इतनी मार्मिक अवस्था में ट्रेन से सफ़र कर रहे थे...उन दोनों कन्याओं का पहला मुंबई रेल सफ़र वह भी थर्माकोल के डिब्बे में...बेहद रोचक था...
यह हमारे भारत का ही रंग है जहां खाने के साथ-साथ बच्चे भी डिब्बे में पार्सल होते है...


Thursday, November 3, 2011

लोकल डिब्बे में विदेशी रंग


आज लेडिस डिब्बे में एक नया रंग देखने को मिला. वो था गोरो का रंग. हमेशा की तरह वडाला से मैं ट्रेन में चडी और चड़ते ही एक कोना धुंडने लगी तभी मैंने देखा की डिब्बे के अंत में ढेर सारी औरते एक ओर देख रही है. मुझे लगा हमेसा की तरह भीड़ की वजह से सीट के लिए झगडा हो रहा होगा. लेकिन वहा से चिल्लाने की नहीं बल्कि हसने की आवाज़  रही थी.तब मुझे लगा यह जरुर झगडा नहीं होगा वर्ना सभी औरते उस तरफ इतने गौर से नहीं देखती. मेरे मन की जिघ्यासा बड़ी. लेकिन करती भी क्या भीड़ काफी थी. लेकिन शायद मेरी जिघ्यासा सच्ची थी. इसलिए अगले स्टेशन की भीड़ ने मुझे धक्का दे कर डिब्बे के अंत में पंहुचा ही दिया. जब मैंने झुक कर देखा तो पता लगा यहाँ जो रंग जमा हुआ है वो विदेश से आई कुछ मेहमानों के लिए है. वहा दो विदेशी महिलाएं बैठी हुई थी. जिन्हें चारो ओर से हमारी महाराष्ट्र की युतियों और बुजुर्गों ने घेर रखा था. सौभाग्यवश, मुझे उन लोगों के विदेशी अतिथि सत्कार समारोह को देखने का मौका मिला. वहां उपस्थित कुल औरतों में  ही महिलायों को अंग्रेजी बोलनी आती थी. लेकिन उन विदेशियों से बात करने की चाहत तो सभी के मन में थी. सभी एक-एक कर अपने सवाल हिंदी में कहते और फिर वो दोनों महिलाएं अंग्रेजी के कुछ शब्दों की सहायता से अपनी बात कहने की कोशिश करती. ऐसा जान पड़ता था की अंग्रेजी बहुत ही छोटी भाषा है जिसमें बेहद कम शब्द हैं. उनकी अंग्रेजी में  तो व्याकरण था और  ही बात को समझने के लिए आवश्यक शब्दों से ज्यादा शब्द. खैर, उस भीड़ में तो वो दोनों महिलाएं ही सबसे अधिक अंग्रेजी जाननेवाली मालूम पढ़ रही थी. दोनों विदेशी महिलाएं हमारे महाराष्ट्र की औरतों के साथ बातें करती बेहद खुश लग रही थी. उन्होंने सभी के एक-एक कर नाम भी पूछे. बातों का सिलसिला कभी भारतीय परिधानों की ओर मुड़ता तो कभी विवाह की ओर.
        इसी बीच मैं अपने लिए कोने में खड़े होने के लिए जगह ढूंड रही ही थी. एक तंदरुस्त औरत के बगल रिक्त स्थान देख कर वहा जा खड़ी हुई. वह औरत भी उस गोरे रंग की ओर काफी आकर्षित थी. इसलिए वह पीछे मुद कर विपरीत देश में खड़ी थी. सभी आने जाने वाले लोग उस पर चिल्लाते, उसे धक्का देते पर उसपर कोई असर पड़ता. उसने तो जैसे अपने देश में आये अतिथियों के सम्मान में अपने आप को समर्पित कर रखा था. मैं जब उसके बगल में खड़ी हुई तो वह उन लोगों को देखने के लिए धीरे-धीरे मुझपर चड़ने लगी. मैंने उसकी ओर देखा और अपने नज़रों से उससे ठीक से खड़े रहने की चेतावनी दी. वो मेरी मूक भाषा को समझ गयी और थोडा किनारे हुई. लेकिन मेरे कुपित नज़रों के धिक्कार से कही अधिक उसे उन गोरों के दर्शन भा गए थे. अब मैं भी क्या करती उस बुजुर्ग महिला से लड़ना मेरे सामर्थ्य और संस्कार दोनों की ही परिधि से बाहर था. फिर अपने हाथो में लिए पुस्तक पर नजरें गडा लिए
      अगले स्टेशन पर एक महिला अपने छोटे से बच्चे के साथ चडी. मैंने उसे अन्दर जाने के लिए कहा. वह अन्दर जा कर ठीक से खड़ी हो पति उसके पहले ही उसकी गोद में बैठा बच्चा रोने लगा. सभी लोगो का ध्यान उसकी तरफ ना चाहते हुए भी खीच गया. गौरतलब है कि, ट्रेन में जब भी कोई शोर मचाता है या कोई बच्चा रोता है तो अक्सर ज्यादातर महिलाएं अपना मुह बिचकाने लगती है. वे उनकी ओर बेहद रोषपूर्ण नज़रों से देखती है. पर आज के इस लोकल डिब्बे के रंग ही अलग थे. बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर दोनों विदेशी महिलाओं ने उसे हँसाने के लिए तालियाँ बजाई और तरीके तरीके के मुह बनाये. पर शायद उस बच्चे को विदेशी प्यार नहीं भाया.  वह और जोर से रोने लगा. तब बाकि सारी महिलायों ने उस बच्चे को चुप करवाने के लिए बड़ी सिद्दत से प्रयास किया. यहाँ तक कि उस महिला को बैठने तक की सीट दे दी. आश्चर्य की बात तो यह थी की मैंने पहली दफा लोकल डिब्बे में महिलाओं को विदेशियों को इतना तवज्जो देते देखा. अगर पुरुष ऐसा करते तो यह बात मुझे इतना खटकती. पर महिलायों के इस व्यवहार से मैं बेहद अश्कार्य चकित थी. खैर कारण जो भी हो यह बात तो सिद्ध हो गयी कि भले ही कुछ लोग भारत में आये विदेशी मेहमानों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हो, उन्हें लुट रहे हो. पर भारतीय महिलाओं में अब ही संसकर कूट कूट कर बहरे है. उन्होंने अपनी संस्कृति को कायम रखा है. धन्य हो नारी.