Sunday, September 8, 2013

शहादत, राजनीति और मीडिया

       8 अगस्त को पुंछ के बॉर्डर पर 5 सैनिक शहीद हो गए। मानसून सेशन शुरू होने की वजह से मुद्दा सदन रद्द करने की वजह बन गया। बगैर देर किए शहीदों के नाम पर सियासत भी जोर पकड़ने लगी। कहीं सरकार की जुबान फिसल गई, तो कहीं विपक्ष को सरकार का शांत रवैया नहीं पसंद आया। अपने राष्ट्र के सैनिक जब शहीद होते है, तो देश के हर नागरिक का खून खौलना लाजमी हैं। दिहाड़ी मजदूर से लेकर सेंसेक्स के दफ्तर में बैठे देश के हर नागरिक की नाराजगी स्वाभाविक है। लेकिन राजनितिक उग्रता क्या सचमुच देश के प्रति है या फिर मात्र देशभक्ति जताने के लिए ये आक्रोश टीवी चैनलों पर दिख रहा है, यह सोचनेवाली बात है। विपक्ष उग्र न हो, तुरत-फुरत कारवाई की मांग न करे, तो देश की जनता जो स्वाभाविक रूप से आक्रोश में है। उसे वह अपने पक्ष में कैसे ले पाएगी। सरकार आवेग में आकर ऐसा कोई फैसला नहीं ले सकती, जिससे उसकी छवि बिगड़े। सरकार और विपक्ष कहीं न कहीं इसमें अपना स्वार्थ साधते नजर आते हैं। 
      इन सब के बीच आम नागरिक सही फैसला लेने के लिए, सारी जानकारी हासिल करने के लिए मीडिया पर निर्भर रहता हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है, कि क्या मीडिया जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है-फ़िलहाल उसपर भी प्रश्न चिन्ह लगता नजर आ रहा है। वह ऐसे समय में अपना दायित्त्व ईमानदारी से निभा रही हैंमीडिया का काम जनता के सामने तथ्यों को रखना होता हैं। उन्हें सोचने पर मजबूर करना होता हैं। न कि तथ्यों को तोड़-मरोड़कर अपना नजरिया आम आदमी पर थोपना। फैसला करना, अंतिम राय बनाना मीडिया का काम नहीं होता। जिस समय आम आदमी राष्ट्रवाद के उबाल में हैउस समय मीडिया को अपने होश नहीं खोने चाहिए। कई न्यूज चैनलों पर राष्ट्रवाद के पैरामीटर लगा दिए गए। जिसका निर्णय एसएम्एस द्वारा किया गया। एंकर दर्शकों के भावनाओं से सीधे जुड़ने के लिए आक्रोश में आ गए। टीआरपी के चक्कर में सच्चे देशभक्त के खाके मीडिया तैयार करने लगा। अगर आप गुस्से में हैं,पाकिस्तान पर बम छोड़ने के पक्ष में हैं, तो आप देशभक्त हैं। अगर आप अब भी शांति से बात सुलझाना पसंद करते है, तो आपको अपने देश से प्यार नहीं। पकिस्तान पिद्दीभर देश है, जिसे हम एक झटके में उड़ा सकते है, वगैरह, वगैरह। ऐसे कई तरह के युद्ध उन्माद फैलानेवाली बहसे करवाते और बिना सिर-पैर के तर्क देते कुछ चैनल नजर आए। न जाने क्यों ऐसे समय में मीडिया की भाषा अचानक से विकृत हो जाती है। हमे यह समझना होगा कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं होता। युद्ध से किसी भी राष्ट्र में शांति नहीं स्थापित की जा सकती। अपितु उससे भंग जरुर होती है। बात-चीत करना कमजोरी की निशानी नहीं होती। बशर्ते सही दिशा में, सटीक और सीधी बात की जाए। लेकिन कुछ चैनल अपने पूर्वाग्रहों से इतने ग्रस्त नजर आए कि उन्होंने आप ही सही-गलत तय कर लिया। घटना के बाद बेहद संवेदनशील कश्मीरी बॉर्डर पर कुछ चैनल राष्ट्र की सुरक्षा को ताक पर रखकर वहां सबसे पहले पहुंचने का दावा करते नजर आए। वे रिपोर्टिंग कम अपने जान की बाजी लगाकर वहां पहुचने पर ज्यादा प्रकाश डालते रहे।  
      आम नागरिक जिस ओर ज्यादा झुकाव देखता है। उसी करवट बैठता हैं। उसे हमेशा न्रेतित्व की आवश्यकता होती है। मीडिया जनता की आवाज होती है। उसे गोलीबारी के बदले गोलीबारी करने की आम राय पेश करने की बजाय इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि देश के नागरिक को इस मुद्दे के कितने वास्तविक तथ्य मालूम है। क्या पुंछ में जो हुआ उसे हम उसी रूप में उन तक पहुंचा पाए हैं? जो इस देश के नागरिक को मालूम होना चाहिए था, क्या वह हम उन्हें बता पाए हैंजब तथ्यों की कमी होती है और मीडिया जजमेंटल हो जाता है। तब अंधराष्ट्रवाद जन्म लेता है। अंधराष्ट्रवाद आतंकवाद से भी भयंकर रूप ले सकता है। वैमनस्य का माहौल बनाने से अराजकता ही फैलती है, कि न की शांति के सुमन खिलते हैं। मीडिया को इस लोकतंत्र में अपनी भूमिका को फिर से समझने की जरुरत है।         

 - सोनम गुप्ता

भारतीय सेना  को सलाम