Thursday, August 9, 2012

"मैं बिकाऊ नहीं"

        "मैं बिकाऊ नहीं" अगर यह प्रण हमारे समाज का हर नौजवान ले ले. और अपनी और अपने जीवनसाथी की अहमियत को समझ जाये तो दहेज़ प्रथा का नाम इतिहास के पन्नो में कही दूर दब जाये. जिसके पन्ने पलटते वक़्त हमारी आगे आनेवाली पीढ़ी गर्व से कहे...यह कुप्रथा तो हमारे समाज में सदियों पहले ही बंद हो गयी. दहेज़-प्रथा पर कई बार चर्चा आपने सुनी होगी. और हर बार यह शब्द पढ़ते वक़्त मन में यही कहा होगा कि अरे न जाने यह लेख लिखनेवाले कौन से ज़माने में जी रहे है. यह प्रथा तो कब कि हमारे यहाँ ख़तम हो चुकी है. हम तो दहेज़ नहीं लेते. और इतने दिनों से इस पर इतना काम किया जा रहा है तो जरुर यह कुप्रथा कब की समाप्त हो गयी होगी. लेकिन मान्यवरों और सखियों आप सभी का ध्यान इस विषय कि ओर आकर्षित करते हुए मैं बताना चाहूंगी कि हमारे खुद के अग्रहरि समाज में अगर अनुपात लिया जाये तो हर तीसरी लड़की का रिश्ता सिर्फ और सिर्फ दहेज़ के कारण टूटता है. फरक सिर्फ इतना है कि पहेल लोग खुले आम दहेज़ को दहेज़ कहकर मांगते थे. लेकिन आज तो अंडर टेबल का जमाना है, इसलिए टी.वी., फ्रीज, गाड़ी-घोडा जैसी कीमती वस्तुओं का सहारा लिया जाता है. सज्जन लोग कहते है, यह तो हमारी प्रथा है दहेज़ थोड़ी न है..अब लड़की झुरे हाथ आये यह अच्छा थोड़े न लगता है. और लड़की वाले भी समाज में अपनी झूटी शान और बेटी के ससुराल में उसका रुतबा बनाये रखने के लिए एक घर बसाने जितना पूरा सामान उसके साथ ख़ुशी-ख़ुशी भेज देते है. कई मामलों में तो एक नया घर ही दे देते है. बुजुर्गों से जब इस बारें में बात करने कि कोशिश कि तो वे कहने लगे कौन-सा हमे वे लादे देते है. जो कुछ भी देंगे बरतन, कपड़ा, अलमारी, टी.वी, फ्रीज, वाशिंग मशीन, इत्यादि वह अपनी ही बेटी के सुख-सुविधा को देंगे न कि हमारे लिए. ऐ.सी लाएगी तो वो उसकी ठंडी हवा में अंगड़ाई लेगी, वाशिंग मशीन अपनी मेहनत को बचाने के लिए ला रही है, अलमारी में वो अपने ही कपडे रखेगी, उसके पिता ने दिए हुए बिस्तर पर खुद सोएगी न कि हम उसपर जा लोटेंगे. यहाँ तक कि कुछ ने तो कहा कि यह सब लाकर वह हमपर कोई एहसान तो कर नहीं रही बल्कि हमारे घर में आ कर रहेगी उसका क्या. वाह रे! समाज, जब हमारे घर कोई नया मेहमान आता है तो क्या हम उसे कहते है भाई तू अपना बोरियां बिस्तर भी साथ ले आ. हामरे घर में टी.वी., फ्रिज नहीं अगर ठंडा पानी पीना हो, धारावाहिक देखना हो तो हमारी बहु की तरह तू भी अपने साथ यह सब लेते आ. सही मायनों में देखा जाये तो इन सब चीजों को दहेज़ का नाम देना ठीक न होगा. यह तो उस नयी दुल्हन का अपने पति के घर में रहने का किराया है. जो उसके मां-बाप उसके ससुराल वालों को देते है. गौरतलब है कि दहेज़ के पक्ष में ज्यादातर घर की महिलाएं ही बोलती है. शायद वे यह भूल जाती है कि वे भी किसी कि बेटी और अब किसी बेटी की मां है. जब इस बारें में युवा पीढ़ी की राय जाननी चाही तो वे कहने लगे हम तो दहेज़ के सख्त खिलाफ है. मैंने तो अपनी शादी में अपने ससुरालवालों से कुछ नहीं माँगा. हाँ, जो उनकी ख़ुशी थी, जितनी उनकी हैसियत थी उतना उन्होंने दिया. उसपर मैंने कोई टिक्का-टिपण्णी नहीं की. अब ऐसे दुल्हेराजा को मैं उदारवादी कहू या उनके दोगुलेपन पर हसू. यह तो वही बात हुई कि मैं घूस मांगता नहीं मगर अगर कोई जबरदस्ती दे जाये तो मना भी नहीं करता. पढ़ी-लिखी लड़कियां कहती है हम मजबूर है अगर इनकी मांग को पूरा नहीं किया तो हमारे घर रिश्ते आना बंद हो जायेंगे. मैं कहती हु जो शादी से पहले आपके घर में प्रवेश मात्र के लिए पैसे लेता हो, वे लोग क्या आपको ख़ुशी दे पाएंगे. वे तो सिर्फ पैसों से प्यार करते है. उनके लिए बेटे की शादी का मतलब बहूं लाना नहीं बल्कि घर के लिए नया फर्नीचर और इलेक्ट्रोनिक आयटम लाना हुआ. 
          एक लड़की शादी कर अपना पूरा जीवन अपने पति के नए परिवार को अपनाने में, उसकी सेवा में समर्पित करती है. जिन्होंने उसे पाला-पोसा उनकी उँगलियों को छोड़ अपने पति का हाथ थाम नए माहौल में ढलती है. ऐसे में उसका इज्जत और प्रेम के साथ घर में स्वागत करने की बजाय उसे घर में आने के लिए कीमत देनी पड़ती है. यह तो ठीक वैसा ही हुआ जैसे किसी होटल में रहने के लिए एक निश्चित कीमत दी जाती है. जितनी ज्यादा आप खर्च करेंगे उतनी ही अच्छी सुविधा और इज्जत आपको वहां मिलेगी. वैसे ही सुसराल में जितना ज्यादा दहेज़ देंगे उतनी ही ज्यादा इज्जत और अपनापन आपको मिलेगा. वरना होटल का बिल न चूका पाने की स्तिथि में बर्तन तो मांजने ही है. आज हर मां-बाप अपनी बेटी को खूब पढ़ाते-लिखाते है, उन्हें सफलता की उचाईयों को छूता देखना चाहते है. घर में बेटे और बेटी में कोई फरक न कर दोनों को एक जैसी परवरिश देते है तो क्यों अपने बेटी के शादी में बेटे से अधिक खर्चे,क्यों बड़ी-बड़ी डिग्रियां देने के बाद भी उनके लिए लड़का ख़रीदे? 
इस प्रथा को एक और तरीके से देखा जाये तो यह लडको को बेचना हुआ. माफ़ कीजियेगा मगर यह कहकर मेरा किसी की भावनाओं को ठेस पहुचाने का कोई मकसद नहीं है. मैं तो सिर्फ जो दिख रहा है और जो संसार का नियम है उसी की तुलना कर बात कर रही हु. जब हम कोई चीज़ घर लाते है तो उसकी एक सही कीमत चुकानी पड़ती है. वैसे ही लड़की के माता-पिता अपनी बेटी के लिए योग्य पति खरीदते है. दहेज़ ही तो उनके दामाद की कीमत होती है. रिश्ता तय करने से पहले ही खर्चे और लेना-देना तय कर लिया जाता है. तय करने के लिए यहाँ तो बोली भी लगती है. मोल-भाव भी बड़े सलीके से होता है. बेटा डॉक्टर, इंजीनियर हो तो कीमत १० लाख से ऊपर की होती है. शिक्षक या बैंक में नौकरी करता हो तो दो पहियाँ, चार पहियाँ में बात बनती है. यहाँ हर प्रोफैसन के लिए एक निश्चित कीमत है. शादी के इस बाजार में हर लकड़ा एक निश्चित प्राइज टैग के साथ आता है. उसके आस-पास ही मोल-भाव होता है. अगर लड़कीवालों की तरफ से दी जानेवाली राशी का प्रस्ताव लड़के को पसंद आ गया तो वह रिश्ते के लिए हाँ कर देता है वह भी इस लहजे में की वह अब भी अपने जरूरतों के साथ समझौता कर रहा है. हास्यस्पद है कि हमारे यहाँ शादी के शुरुवाती रस्मों को व्यापर की तरह ही नाम दिए गए जैसे बयाना, बरीक्षा, लेन-देन, इत्यादि. यानि यह दो सजीवों, दो परिवारों का मिलन न होकर एक लेन-देन , एक सौदा हुआ.
         जब तक हम दहेज़ लेना और देना नहीं बंद करते तब तक इस प्रथा का ख़तम होना नामुमकिन है. हम या तो इसके खिलाफ हो सकते है या इसके साथ. बीच का तो कोई रास्ता ही नहीं होता. अगर आप कहते है की मैं अपने बेटे की शादी में दहेज़ नहीं लूँगा लेकिन बेटी की शादी में अगर मांग हुई तो देने के आलावा कोई विकल्प नहीं रह जायेगा. तो मैं कहूँगी कि आप अब भी दहेज़ प्रथा का समर्थन कर रहे है. हमे नाजों से पली हुई अपनी बेटी को व्याहते समय अपनी झूठी शान के नाम पर कोई भी सामान देना बंद करना होगा. फिर चाहे आप कितने ही अमीर हो. अगर आप सचमुच अपनी बिटियाँरानी को कुछ देना ही चाहते है तो उसके नाम कोई बिमा करवाना या उसके नाम पर पैसे जमा करवाना बेहतर विकल्प है. यह दहेज़ का लालच ही होता है जो कई दफा घरेलु हिंसा का कारण बनता है. इसलिए बेहद जरुरी है कि अब हम इस दकियानूसी सोच के खिलाफ अपनी कमर कस ले और इसका केवल शाब्दिक विरोध करने कि बजाय ढृढ़ निश्चय के साथ इसके खिलाफ खड़े हो. और अपने घर में यहाँ तक कि अपनी स्वयं की शादी में न दहेज़ दे और न ले. साथ ही अपने आस-पास हो रही ऐसी गतिविधियों को रोके. केवल कागज पर लिख कर या इसे पढ़ कर इसके विरुद्ध चंद मिनट बहस कर कुछ हासिल नहीं होगा. आपका बेटा न बिकाऊ है और ना ही आप उसे बेचे. उसके आत्मसम्मान को जागृत करे. और मेहनत की कमाई का सुख उसे समझाए न कि भीक में मिलने वाले टुकड़ों का लालच उसे अपने बिरासत में दे. एक-जुट खड़े हो और बेहद ईमानदारी से इसका विरोध करे. विवाह प्यार और सौहादर्य से बनता है न कि पैसों से. पैसों से जुड़े रिश्ते कभी दिल के तारों को नहीं जोड़ पाते.
   एक स्वस्थ समाज के लिए उसकी बिमारियों को जड़ से उखाड़ फेकना बेहद जरुरी है. और दहेज़ प्रथा हमारे समाज के लिए कोढ़ की तरह है.