Thursday, January 17, 2013

अभिव्यक्ति की स्वंत्रता किसे: मालिको को या नौकरों को?

  भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार मूल अधिकारों में सम्मिलित है। इसकी 19, 20, 21 तथा 22 क्रमांक की धाराएँ नागरिकों को बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित 6 प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान करतीं हैं। इस अनुसार भारत में सभी नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वंत्रता है। प्रेस को भी अभिव्यक्ति की स्वंत्रता दी गयी है। लेकिन यह अभिव्यक्ति की स्वंत्रता पूर्ण रूप से निर्बाधित न होकर युक्तियुक्त बंधनों से युक्त है। मेरा मानना है कि प्रेस में नौकर की अभिव्यक्ति प्रतिबंधित होती है। वह चाहकर भी अपने विचारो को स्वतंत्रतापूर्वक पूर्णरूप से नहीं रख सकता। यदि वह अपने विचार रखता भी है, तो जरुरी नहीं कि  उसकी अभिव्यक्ति को अपनाया जाए। ऊपरी दर्जे पर बैठे लोग यदि उसकी बात से असहमति जताते है। तो वही उसकी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रतिबन्ध  लग जाता है। उसे मालिको के निर्देशों और नियमों के अनुरूप कार्य करना होता है। ऐसे में उसकी अभियव्यक्ति की स्वंत्रता मालिको और कंपनी के नियमों में सिमटी होती है। यदि वो उनके विरुद्ध जाकर अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की सोचता है। तो संभवत: उसे अपने नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है।
      वहीँ दूसरी ओर  अगर मालिको की बात की जाय तो उन्हें भी पूर्ण रूप से अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं होती। मालिक अकेला अपने आप में कुछ नहीं होता। उस पर भी बाजारीकरण का दबाव होता है। बाजार में लाभ को देखते हुए वह अपने फैसले और अपनी अभिव्यक्तियों को निरंतर बदलता रहता है। भूमंडलीकरण के इस दौर में विचार, मत और दृष्टिकोण सभी कुछ बाजारवाद का शिकार हो गए है। मुनाफे को देखते हुए विचारों का उलट-फेर किया जा रहा है। पहले अख़बार लोगो के मार्गदर्शन और वास्तविकता का बोध करवाने के लिए निकाले जाते थे। लेकिन आज-कल समाचार को समझ सकने में असमर्थ लोग भी अपने-अपने अख़बार छपवा रहे है। अब अख़बार या पत्रिका निकालना सामाजिक उत्तरदायित्व नहीं रहा। यह व्यवसाय बन गया है। बड़े-बड़े उद्योगपति विज्ञापन से अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए समाचार पत्रिका निकलवाते है। ऐसे में इन अख़बारों में अभिव्यक्ति के महत्त्व को नगण्य मानने में कोई हर्ज़ नहीं है। जहां मालिको को सिर्फ अपने मुनाफे और व्यापार से मतलब हो वहां लोगो के हित और नौकरों की अभिव्यक्ति का ख्याल रखने की उम्मीद करना मूर्खता होगी। कभी मालिक नौकर के किसी विचार से सहमत भी हो तो जरुरी नहीं की वह उन्हें अपने अख़बार में स्थान दे। वह बाज़ार और विज्ञापनदाताओं के हितों को नजर में रखते हुए ही ख़बरों का चयन करता है। दुर्भाग्य की बात है, कि पाठक से ज्यादा अब विज्ञापनदाताओं के हितो का ख्याल रखा जाता है। पहले पाठक ईश्वर होता था लेकिन अब विज्ञापनदाता सबकुछ हो गया है। 
     वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि अभिव्यक्ति की स्वंत्रता न नौकरों को है और न ही पूर्ण रूप से मालिको को। यह सब कुछ अब बाज़ार द्वारा संचलित हो गया है। हाँ, अगर तुलना की जाय तो मालिकों को नौकरों से अधिक स्वंत्रता जरुर मिलती है।
                                                                           -सोनम प्र. गुप्ता