Friday, December 5, 2014

नेता की दीवार का उखड़ा रंग उर्फ़ रुक गया विकास

- सोनम गुप्ता   

      बात शुरू हुई यहां से कि अमुख नेता को चुनाव हारने के बाद से पार्टी द्वारा सम्मान नहीं दिया जा रहा और बात नेताजी के सम्मान से न दाएं न बाएं सीधे क्षेत्र के विकास पर जा पहुंची। भई, जब बात निर्वाचन क्षेत्र के विकास की हो तो क्या पक्ष, क्या विपक्ष, सब एक हैं।  बात जनता की है।  बात विकास की है। फंड और अभियान की है। विचारधारा का क्या है वह तो अस्थाई है।  परिवर्तनशील है। विकासशील है। आज सेकुलर तो कल विकसित होकर हिंदूवादी भी तो बन सकते हैं न। अरे! जब देश का विकास हो सकता है, तो नेताजी के विचारों का विकास क्यों नहीं! वैसे भी आजकल विकास की लहर है। हर तरफ केवल विकास हो रहा है। व्यापार से लेकर सरकार तक। सबका विकास।
        हाँ, तो अमुख नेताजी पहले तो अमुख पार्टी में मंत्री थे। पार्टी में उनका खूब दबदबा था। शीश महल क्या अमेरिका तक को टक्कर देने के लिए नेताजी ने वाइट हाउस तक बनवा डाला। बात जनता के विकास की थी न! भारत की जनता अमेरिका के नक़्शे-कदम पर चलने के लिए हमेशा आतुर रहती है। उसे अमेरिका पसंद है। जनता क्या देश के मुखिया का टारगेट भी अमेरिका ही है, लेकिन जब से नेताजी चुनाव हारे हैं उनको कोई पूछता ही नहीं।
        हुआ यूं कि एक दिन वाइट हाउस में बैठे-बैठे नेताजी की नजर हाउस की सफेद दीवार के उखड़ते हुए पेंट पर पड़ गई। तब तुरंत ही उन्हें याद आया कि उनके निर्वाचन क्षेत्र का विकास रुका हुआ है। ठीक तब ही उन्हें एहसास हुआ उनका अपमान जनता के विकास मार्ग में बाधा है। वे तुरंत उठे और एक मीटिंग कर डाली। नतीजा यह निकला कि जो हमें न पूछें, हम भी उसे न पूछें।  नेताजी ने कह दिया भई, जनता विकास चाहती है और इस पार्टी में रहकर अब ये नहीं होने का। इसलिए हम अब विकासवाली पार्टी के पास जाएंगे। 

        बात जनता की है तो क्या अगड़े क्या पिछड़े, क्या तगड़े क्या लंगड़े,  क्या घोड़े क्या गदहे, ऐसे में तो खच्चर से भी समझौता किया जा सकता है। जिस पार्टी में फ़िलहाल नेताजी हैं उसकी विकास करने की क्षमता का एक्सपायरी डेट आ गया है। इसकी रिनिवल की उम्मीद चुनाव हारने के बाद भी थी। इसीलिए तो खुल्लम-खुल्ला बिन मांगा समर्थन सरकार को दे डाला, लेकिन सरकार ने ही ऐन वक्त पर मुंह फेर लिया। और रही-सही उम्मीद को किसी और का साथ पकड़कर चकनाचूर कर दिया सरकार ने। अब बगैर लाइसेंस के दूकान कितने दिन चलेगी। कुछ नई व्यवस्था तो करनी होगी। नयापन किसे नहीं पसंद। नेताजी भी उक्ता गए उसी पार्टी में रहते-रहते। विकास कार्य करते-करते। इसलिए नए विकास के लिए, जनता के लिए पार्टी बदलना जरुरी है। भई, बात जनता की है, विकास की है।      

दल-बदल की राजनीति


Monday, December 1, 2014

काशी के अस्सी की बकलोली

- सोनम गुप्ता 
       काशीनाथ सिंह  की "काशी का अस्सी" पढ़ना सबके बस की बात तो नहीं लगती। भले ही मैंने इसे प्रकाशन के बाद बहुत देर से पढ़ा, लेकिन निश्चित रूप से सही समय पर पढ़ा। सिंह की इस उपन्यासनुमा किताब को पढ़ने वाले पाठक टिपिकली हिंदी में "ऑल वेल, ऑल गुड" पढ़ने की इच्छा रखनेवाले तो बिलकुल नहीं हो सकते। किताब शुरू ही काशी की बोली भाषा को अपनाते हुए 'भोंसड़ी के' से होती है और अंत तक तो उत्तर भारत की देशी गालियों की एक भरी पूरी डिक्शनरी तैयार हो जाती है। ये गलियां यहां जरूरी भी थीं , वर्ना शायद इन वास्तविक पात्रों की कहानियों का वास्तविक फील हमें मिल ही नहीं पाता।
       भले ही इस किताब को व्यंग्य की कैटेगरी में न रखा गया हो, लेकिन इस किताब में जितने तीखे बाण समाज, सरकार, व्यवस्था और धर्म पर छोड़े गए हैं, उतने बिरले ही पढ़ने को मिलते हैं।
       इस किताब के बारे में बहुत लंबे समय से सुनते आ रही थी। पढ़ने की इच्छा भी बहुत दिनों से थी। संयोग बना और काशी का अस्सी हाथ लग गई और सच कहूं तो सही समय पर हाथ आई। काशीनाथ के साथ इस काशी की यात्रा सचमुच सुखद रही। बेहद रोमांचक और जानकारीपरक भी। अंत तक आते-आते तो काशीनाथ सिंह ने सचमुच भावुक कर दिया। समाज के भिन्न-भिन्न सो कॉल्ड "अच्छे लोग" के समूचे तबके को पूरा नंगा करके उनके नकली चेहरों को बेरंग कर दिया है काशीनाथ ने।
      जो लोग इस किताब को इसमें लिखी गयी गालियों और बोल्ड भाषा के लिए दरकिनार करते हैं, वे ऐसे महान व्यक्तित्व हैं, जो स्वप्नलोक में जीते हैं। जिन्हें यर्थाथ पसंद नहीं। काशीनाथ ने जो भाषा लिखी, वो पढ़ने में भले ही थोड़ी अटपटी लगे क्योंकि हमें आदत है सब अच्छा-अच्छा 'आईडयलिस्टिक' टाईप पढ़ने की, लेकिन यकीन मानिए उनके लेखन में कोई बनवाटीपना नहीं है, जो सच में है, उसे ही उन्होंने पन्नों पर उकेरा है। वास्तव में हमारे आस-पास लोगों की भाषा ऐसी ही है, शायद उन लोगों में हम भी शामिल हैं। हम शर्माते हैं बताने में कि हमारे पापा, दादा, चाचा, मम्मी, दादियों की जुबां पर ऐसी गालियां पूरी बेबाकी से छायी रहती हैं। ये सच है कि उत्तर भारत के हरेक जीव ने अपने घर में व्यंग्यात्मक कटाक्ष, गालियां, इत्यादि सुनी और खुद दी भी होंगी। ये हमारी संस्कृति का, हमारे जीवन का एक अटूट हिस्सा है।
        आज मादरचोद चुभता है लेकिन मदर फकर सभ्य लगता है। आज के युवा धड़ल्ले से फक ऑफ, फक यू बोल जाते हैं और ये बड़ा ट्रेंडी भी लगता है, लेकिन इसकी बजाय चोदूराम, चुदाई जैसे शब्द सबके कान खड़े कर देते हैं। गालियां देना जरुरी नहीं, लेकिन जहां वास्तिविकता में गालियां हैं उन्हें साहित्य के पन्नों पर भी स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। ऐसी ही गालियां हमारी भाषा में हैं, हमारे जीवन में थीं और भविष्य में भी रहेंगी। संभवत: उनका विकास हो जाए और वे महिलाओं के सेक्स से आगे बढ़ कर बापचोद तक पहुंच जाएं।


 
काशी का अस्सी और मेरी नजर