Monday, December 31, 2012

क्यों न आते तुम हर उस शाम


तुम साथ क्यों नहीं थे,
उस शाम क्यों नहीं थे,
उन दरिंदों ने,
मेरी आत्मा को,
निर्ममता से मार दिया,
तड़पी मैं,
चीखी मैं,
चिल्लाते हुए,
बचने की कोशिश भी की,
लेकिन हार ही गयी,
तुम्हारी बिटियां

नोच लिया,
हवस के दरिंदो ने,
गिद्ध की तरह,
तुम्हारी लाडो को,
लडती रही,
अस्पताल के चारपाई पर

हैवानों की तरह,
मेरे अंग-अंग के,
चिथड़े-चिथड़े कर दिए,
न समझ सके मुझे इंसान,
मांस का टुकड़ा समझ कर,
बोटी-बोटी छलनी कर दी,
अब क्या बचा था मुझमें,
फिर भी मैं जीना चाहती थी,
उठकर उनसे लड़ना चाहती थी,
क्या गलती थी मेरी?
क्यों रौंद दिए मेरे नन्हे-नन्हे सपनों को?
क्या नहीं जन्मे वह किसी स्त्री के गर्भ से?
क्या इसी तरह नोचा था
अपनी मां और बहन को?
यह सवाल पूछना मैं चाहती थी

जीत गए वो आज,
फिर एक बार,
मेरी सांसों के रुकने से,
तुम आये इस शाम,
लेकर हाथों में ज्योति,
क्यों न आते तुम हर उस शाम,
जब मेरे जैसी,
लाखो दामिनी,
चीखती, चिल्लाती और रोती  ... 
                    -सोनम प्र. गुप्ता