हिन्दू धर्म में जहां लड़कियों को देवी का दर्ज़ा दिया गया है, वहीं भ्रूण हत्या, बाल-विवाह, अशिक्षा और दहेज़ प्रथा जैसी कुप्रथाएं पंडितों के दोगुले स्वभाव और स्वार्थ को प्रदर्शित करता है. हमारे समाज में कन्याओं को पूजनीय मान कर माता-पिता का चरण न स्पर्श करने का नियम है. लेकिन ऐसे नियम का क्या फायदा जहा स्थान सर्वोच्च देकर मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा जाता हो. लड़कियों की यह स्थिति तो हमारे देश के राष्ट्रपति की तरह हो गयी है जहां पद तो सबसे उचां है लेकिन अधिकार और कार्य के नाम पर खाली चिटठा है. बेहद शर्म की बात है कि हमारे समाज में आज भी लड़कियों को सफलता देनेवाली और उच्च शिक्षा से वंचित रखा गया है. जहां लड़कियां हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवा चुकी हैं वहीं लड़के और लड़की के बीच आज की इक्कसवी सदी में भी अंतर किया जाता है. कई परिवारों में शिक्षा के नाम पर लड़की को बेमन ही साधारण से विषय चयन कर स्नातक बना दिया जाता है. भले ही उसमें बेटे से कई अधिक पढ़ने की क्षमता हो. बेटे के ही वंश चलाने जैसे सोच के कारण लड़कियों को बेटों जितना सम्मान नहीं मिल पाता. विवाह के बाद घूंघट जैसी प्रथा हमारे समाज के पिछड़ेपन की गवाह है. जिस कन्या को शादी के पहले मुह नहीं ढकना होता था उसी लड़की को विवाह के बाद लम्बा सा घूंघट काढ़ने को कहा जाये तो इसमें कोई माननीय तर्क समझ नहीं आता. ससुरालवाले भी तो उसके अपने परिवारवाले है जहा वो अपने जीवन का आधे से भी अधिक समय गुजारती है. उसके सास-ससुर उसके माता पिता ही हुए, जेठ बड़े भाई समान तो क्यों अपनों के ही समक्ष मुह ढकना? जहां तक बात सम्मान की है तो जरुरी नहीं कि वह मुह ढकने से ही व्यक्त हो. ऐसे कितने ही परिवार है जहां बहुएं बगैर घूंघट के अपने ससुरालवालों को खुश रखती है साथ ही आधुनिक महिला के नए रूप को भी निभा रही है. कुछ परिवारों में तो दो फुट लम्बा घूंघट काढ़े महिलाएं अपने सास-ससुर के सामने गाली-गलोज करती नजर आती है. तब हमारे संस्कार और सम्मान की नुमाइश को कौन-सा दामन रोक पाता है. सम्मान और संस्कार तो व्यवहार में होते है न कि ९ मीटर की लम्बी साड़ी और २ फिट के घूंघट में. और अगर व्यहारिक रूप से भी देखा जायें तो महिलाओ के लिए घूंघट में अपनी भूमिका सफल रूप से निभा पाना कितना मुश्किल है. अब हमारे सम्माननीय बुजुर्गों का यह सवाल होगा कि पहले की औरते तो सब कर लेती थी, आज की लड़कियों को नए ज़माने का चस्का लगा है. पहले का जमाना कुछ और था, तब महिलाओं को दहलीज से बाहर कदम रखने तक की स्वतंत्रता नहीं थी. आज हमारे समाज की लड़कियां देश- परदेश में अपने परिवार का नाम रोशन कर रही है, लड़कों के संघ कन्धा से कन्धा मिला चल रही है. दफ्तर के साथ घर, परिवार और बच्चों का भी पूरी सजगता से ख्याल रखती है. घर खर्च चलाने में अपने पति का साथ दे रही है, अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए सहायक निवेश कर रही है. ऐसे में इतना कुछ करने पर भी अगर उन्हें अपना मुह ढक कर चलना पड़े तो यह उनके साथ सरासर नाइंसाफी होगी. गर्व महसूस होता है कि हमारे समाज में ऐसे कई परिवार है जहां बहु को न केवल शब्दों में बेटी कहा गया है बल्कि, उसे सचमुच अपने बेटी ही कि तरह प्रेम और आज़ादी दी गयी है. और उन बहुओं ने भी अपने ससुराल को मायके से भी अधिक प्यार और सम्मान दिया है. पर दुःख इस बात का है कि ऐसे परिवारों कि संख्यां उँगलियों पर गिनी जा सकने जितनी ही है. समाज के विकास के लिए नकारात्मक और पिछड़ी सोच का बदलना बेहद जरुरी है. अगर बहु को बेटी का दर्ज़ा दिया जाता है तो बेटी की ही तरह उसके पहनावे को भी स्वतंत्रता दे. जमाना तेजी से बदल रहा है, हम आधुनिकरण की दुनियां में रहते है. ऐसे में समय नियम बदलने में जादा देर नहीं लगेगी. इस से पहले की आपके अपने बहु, बेटे, दामाद आपकी राय को नजरंदाज़ करे, आप आगे बड़े. बदलते ज़माने के साथ सोच में नयापन लाये और अपनों की ख़ुशी के लिए अपने रीती-रिवाजों में छोटे- मोटे संसोधन करने में हर्ज़ ही क्या है. रीती-रिवाज तो बनाये ही गए है सुविधाजनक और सरल जीवन के लिए न की बेमन से उन्हें सदियों तक बिना किसी तर्क के ढोने के लिए.
मेरी यह बात कई बंधुओं को पसंद आएगी और कईयों को न गवार गुजरेगी. ऐसे में मेरी उन सभी से विनम्र निवेदन है कि कृपया अपने मतों और तर्कों को sonamg.91@gmail.com पर मेल कर हम तक पहुचाएं. जिससे हमे इस निरर्थक रिवाज को बदलने और समाज को उन्नत बनाने में सहयता मिलेगी.