Friday, October 16, 2015

माँ की नई किताब और मेरी एक उम्मीद

मैं ऑफिस से लौटकर धूल-धूसरित घर के एक कोने में बैठी थी। मम्मी पास आकर बैठ गईं। मुझे लगा रोज़ की तरह पेंटिंग करनेवालों की गलतियां बताएंगी। प्लेट में सेब को काट-काटकर रखते हुए माँ ने प्लेट मेरी ओर खिसकायी और कहने लगी आज मैंने वो कहानी पढ़ी। मैं चकित होकर उनकी ओर देखने लगी। कई सारे सवाल मन में कौंध गए। कौन-सी कहानी? ये किसकी बात कर रही हैं? व्यंग्य की? पल भर में याद आया कि रूम के बेड पर घनश्याम अग्रवाल की अपने-अपने सपने रखी हुई थी। मैंने तुरंत कहा,'आप वो किताब पढ़ रही हो? आपने निकाला? आप तो कोई दूसरी पढ़ रही थी न! वैसे वो कोई ख़ास किताब नहीं है।'
माँ का चेहरा अचानक ही खिल गया और कहने लगी,"नहीं...नहीं अच्छी किताब है। छोटी-छोटी कहानियां हैं। जल्दी ख़तम होती हैं। मजा आता है।"
फिर चेहरा वापस प्लेट की ओर कर कहने लगी,'दूसरी किताब बाद में कभी पढूंगी।'
मैंने कहा कोई बात नहीं। आपकी मर्जी। वैसे ये क्या किताब अच्छी है? मैंने पूरी नहीं पढ़ी। बस्स! माँ को तो इसी की देरी थी। तुरंत पूरे उत्साह के साथ उन्होंने कुछ कहानियां जो दोपहर में उन्होंने पढ़ी थी मुझे सुना दी। मैं सुनती रही। यकीन करिए उनको पढ़ने का कोई शौक नहीं है। बमुश्किल एक उपन्यास पूरा कर पायी हैं। वो भी मेरी जिद्द के आगे हारकर। उस बार किताब मैंने चुनी थी। लेकिन इस बार उन्होंने किताब खुद चुनी।
     घर में पेंटिंग का काम चल रहा है। दिनभर एक ही कमरे में रहना पड़ता है। जहां टीवी भी नहीं है। ऊब को कम करने के लिए दो दिन पहले ही खुद ही अलमारी से उन्होंने हिंदी हास्य-व्यंग्य संकलन, श्रीलाल शुक्ल और प्रेम जनमेजय द्वारा सम्पादित किताब पढ़ने के लिए निकाली थी। मैंने मन बहलाने के लिए अल्बम देखने कहा था, खुद उन्होंने किताब का विकल्प चुना। मैं आश्चर्यचकित थी कि इतनी सारी कहानियों, कविताओं के बीच इन्होने व्यंग्य को ही क्यों चुना! खैर, ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं। राज-समाज को लेकर अपडेटेड नहीं, ऐसा नहीं है। लेकिन घर से बाहर ज्यादा लोगों से नहीं मिलती, इसलिए कई चीजें समझ नहीं पाती। बहुत सारे व्यंग्य नहीं समझ आए उन्हें। पहले दिन खुश थी। दूसरे दिन निराश होकर कहने लगी,"मजेदार है। लेकिन इसमें बहुत सारी ऐसी चीजों का ज़िक्र है, जिनके बारे में मुझे नहीं मालूम।"
    वो व्यंग्य समझ पायी यही मेरे लिए बड़ी बात है। और उससे भी ज्यादा ख़ुशी इस बात कि की उन्होंने टाइमपास के लिए पढ़ने का विकल्प चुना।  सच में, ऑफिस की सारी थकान माँ ने उतार दी। उनका पढ़ना दिल खुश कर देता है। जब कभी अख़बार की कोई खबर पर वो चर्चा करने लगती हैं, उन्हें गले लगाकर नाचने का मन करता है। उनका नजरिया ख़बरों और किताबों के प्रति चाहे जो हो, फ़िलहाल मेरे लिए वो मायने नहीं रखता। मायने है तो उनके पढ़ने के। उनके ख़ाली समय में उलजुलूल की बातें सोचकर डिप्रेशन में जाने की बजाय कुछ नया करने के। ऐसा लगता है जैसे अलमारी में किताबें रखने का मकसद पूरा हो रहा हो। वो नहीं जानती ये बात। और मैं उन्हें बताउंगी भी नहीं। फ़िलहाल वो ब्लॉगिंग की दुनिया से अनभिज्ञ हैं। लेकिन जिस गति से बढ़ रही हैं। मुझे यकीन है एक ना एक दिन मेरा ये पोस्ट वो जरुर पढ़ेंगी। वह दिन...तो दिन होगा। मेरा दिन!
दोनों किताबें