Saturday, September 27, 2014

श्रीमती कुर्सी का हो पंचवर्षीय द्रौपदीकरण


- सोनम गुप्ता

भाजपा और शिवसेना के 25 वर्षों के हेल्दी रिलेशनशिप के बावजूद अब उनका तलाक हो गया। यहां कांग्रेस और राकांपा का भी 15 साल पुराना रिश्ता टूट गया।आज-कल माहौल ही तलाक का है। जहां देखो वहां वर्षों पुराने रिश्ते चटककर बिखर रहे हैं। हर कोई अकेले चलने की कोशिश में है। हर कोई अपनी ताकत आजमाने की फिराक़ में है।
        मजे की बात तो यह है कि कांग्रेस- राकांपा और शिवसेना-भाजपा के गठबंधन की गांठे क्या खुली सैकड़ों  घरों में दिवाली मन गयी। जो लंबे अरसे से वोट मांगने का सपना सजो रहे थे। आज उनकी पार्टियों के  अकेले चलने की जिद ने उन्हें मौका दे दिया है।
अब महाराष्ट्र के चुनावी मैदान में पांडवों की तरह पांच राजनितिक पार्टियां आमने-सामने खड़ी हैं। और इन सभी के तलाक के पीछे भी एक स्त्री है। यह एक ऐसी स्त्री है, जिसपर स्त्रियां भी अपनी जान छिड़कती हैं। वह है श्रीमती कुर्सी। मुख्यमंत्री की कुर्सी। फिर ममता हो या जयललिता।  माया हो या वसुंधरा। सब इसी श्रीमती कुर्सी की दीवानी हैं। 
महाराष्ट्र में इसी कुर्सी को पाने के लिए लालायित ये सभी दल अकेले अपने दम पर ही रेस लगाने को तैयार हो गए हैं। कल तक जो गलबहियां करते थे, आज वो पोस्टर-बैनर लेकर एक-दूसरे के दरवाजे पर गला काटने को आमादा हैं। लेकिन  ऐसी स्तिथि में जनता बहुत दुविधा में हैं।
जनता सोच में है। किसका साथ दे। इस बार किसको अपने सिर पर बिठाकर नचाये। किसकी जूती खाएं। किसकी सभा सजाए। किसका भोजन बन जाएं। जनता के तो सारे समीकरण ही बिगड़ गए।
      कुर्सी के लिए पांडवों की तरह पांच राजनीतिक दलों की लड़ाई में जनता उर्फ़ कुंती की स्थिति ख़राब है। इसलिए अब कुंती को पुराने महाभारत से सीख लेते हुए इन सभी पांडवों को आपस में लड़ने से रोक देना चाहिए। ये पांचों पार्टियां दरवाजे पर कुर्सी के साथ खड़ी हो जाएं। अर्जुन द्रौपदी को लाये या युधिष्ठिर या भीम। द्रौपदी को तो सबकी सेवा करनी है। सबको तृप्त करना है। इसलिए मुख्यमंत्री की कुर्सी को 5 पार्टियों के बीच एक-एक बरस के लिए आवंटित कर देना चाहिए। वैसे भी ये पांचों पार्टियां मौसेरे भाई हैं। सबका मकसद सिर्फ कमाई है। इन भाइयों में अब एक कुर्सी के लिए लड़ाई हो, तो ठीक नहीं। वैसे भी जन शोषण हर हाल में होना है। राजा ये हो तब भी और वो हो तब भी । इससे तो अच्छा हो कि जनता भी कुर्सी को पांचों पार्टियों में बराबर सालों के लिए बांटकर इस चुनावी नाटक से छुट्टी पा जाए। क्योंकि चुनाव कोई भी जीते हार तो जनता जनार्दन की ही होनी है।

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Wednesday, September 24, 2014

क्यों न ऑनलाइन हो चुनाव के टिकट की बुकिंग

व्यंग्यबाण

बतरस-25.9.14

- सोनम गुप्ता

रेल टिकट हो या एयर टिकट, आजकल सब कुछ ऑनलाइन मिलता है। लोगों को घर बैठे सब कुछ बुक करने की यह सुविधा बहुत भा गई है। न लाइन की किच-किच, न घंटों खड़े रहने का झंझट। साइट खोली, यहां-वहां उंगलियां घुमाईं, जानकारी भरी और टिकट बुक। बुकिंग के क्षेत्र में इस क्रांतिकारी सुविधा का लाभ क्यों न राजनीति में भी उठाया जाए। जल्दी ही कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। उनमें यह प्रयोग किया जा सकता है। क्यों न चुनाव के टिकट भी ऑनलाइन ही बांटे जाएं। इससे राजनीति में पारदर्शिता आएगी। आज भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए यदि किसी क्षेत्र में सबसे अधिक बदलाव करने की आवश्यकता है तो वह सियासत ही है। पॉलिटिक्स में पारदर्शिता आने का मतलब होगा देश से भ्रष्टाचार का खात्मा।
वैसे भी आजकल ज्यादा से ज्यादा सरकारी प्रक्रियाओं को ऑनलाइन करने का ट्रेंड चल रहा है। आम आदमी भी खुश है कि घर बैठे कंप्यूटर पर लाइसेंस से लेकर नौकरी तक का पर्चा भरने मिल रहा है। बिचौलिया जा रहा है, ट्रांसपेंरेंसी आ रही है। चुनाव के वक्त टिकट आवंटन को लेकर हर पार्टी में बहुत मारामारी मचती है। अखबारों में ये खबरें तो आम हो जाती है कि फलाने ने ढिमाके का टिकट मार लिया। फलाने ने तो पार्टी को लाखों का फंड अपनी उम्मीदवारी के बदले दिलाया था, लेकिन ऐन चुनाव के वक्त उनका पत्ता साफ हो गया। अब जनता के प्रतिनिधियों के साथ ऐसी धोखाधड़ी और नाइंसाफी होगी, तो जनता जनार्दन के भविष्य का क्या होगा। इसलिए राष्ट्र के कर्णधारों के हित में अब बेहद जरूरी हो गया है कि चुनाव लड़ने को इच्छुक उम्मीदवारों को टिकट भी ऑनलाइन ही जारी किया जाए। इससे कई तरह के फायदे होंगे। चुनाव कार्यक्रम घोषित होने के बाद पार्टी कार्यालयों और सीनियर लीडरों के घरों के आगे जो भीड़ लगती है, वह बंद हो जाएगी। टिकट को लेकर नारेबाजी, सिर फुटौव्वल खत्म हो जाएगा। अब टिकटार्थियों को ऑनलाइन अप्लाई करना होगा। वे ऑनलाइन अप्लीकेशन में जितना चाहें, अपने बारे में बखान कर सकते हैं, डींगे हांक सकते हैं। ऐसे तो आलाकमान के पास उन्हें सुनने का वक्त नहीं होता। अब आलाकमान चैन से उनके आवेदन को पढ़ सकता है। अब वे लोग भी अपना आवेदन कर सकेंगे जिन्हें टिकट मांगने में शर्म आती है पर दिल के किसी कोने में झक्क सफेद कुर्ते को दीन-गरीबों के सामने फैलाकर वोट मांगने का सुनहरा सपना पलता रहता है। ऐसे सज्जन पुरुष भी चुपचाप कमेरे में अकेले बैठकर अपनी दबी हुई महत्वाकांक्षाओं को ऑनलाइन कर देंगे। फिर अतिपारदर्शी ऑनलाइन प्रक्रिया में बहुत संभव है कि कई सालों की उनकी रहस्यमय तपस्या सफल हो जाए।
इतना ही नहीं पार्टी की उम्मीदवार चयन समिति को भी इसेटिकट दो या उसे दो , इस उम्मीदवार से इतना लो या वोउसका रिश्तेदार है उससे मत लो के झंझट में नहीं पड़नापड़ेगा। और बाद में टिकट न मिलने पर इस लेन - देन काहिसाब - किताब करने आए लोगों के मुंह भी नहीं लगनापड़ेगा। भई , सब ऑनलाइन होगा , कोई बिचौलिया नहींकोई धांधली नहीं। तो फिर सवाल - जवाब या शक - शंकाका तो कोई सवाल ही नहीं उठता।
लेकिन यदि आवेदनों के अत्याधिक भार की वजह सेउम्मीदवार चयन की यह साइट खुलते ही आईआरसीटीसीकी साइट की तरह हैंग हो गई तो इसमें पार्टी और उम्मीदवारचयन समिति का कोई दोष नहीं। और न ही साइट के पुन :सुचारू रूप से चलने पर टिकट समाप्त हो जाने पर पार्टी परकिसी भी प्रकार का संदेह करने की जरूरत है। अबटैक्नीकल फॉल्ट के लिए पार्टी क्या करे। वैसे सब कुछटैक्नीकल हो जाने का एक और लाभ है। मान लीजिए किसीबड़े नेता के किसी करीबी रिश्तेदार ने शिकायत की कि उन्हेंटिकट नहीं मिला , तो नेताजी कह सकते हैं कि क्या करें ,टिकट तो उन्हें अलॉट कर दिया गया था पर किसी टैक्नीकलप्रॉब्लम की वजह से उनका नाम नहीं आ सका।
इंट्रो : आज आम आदमी खुश है कि घर बैठे कंप्यूटर पर हीलाइसेंस से लेकर नौकरी तक का पर्चा भरने मिल रहा है।बिचौलिया जा रहा है , ट्रांसपेंरेंसी आ रही है।

http://navbharattimes.indiatimes.com/jokes/satire/btrs-25-9-14/hansimazakshow/43336080.cms

NBT में 25 सितंबर को  प्रकाशित