Wednesday, December 24, 2014

मोदी का अधूरा अश्वमेध

क्षेत्रीय क्षत्रपों की बैशाखियों से कैसे पार लगेगी वैतरणी

- सोनम गुप्ता


          झारखंड और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव के परिणामों ने यह बात साबित कर दी है कि जनता पूर्ण रूप से भाजपा के साथ नहीं है. हाल ही में विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा बहुमत पाते-पाते रह गई. भले ही महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में पहले के मुकाबले लगभग दोगुने सीटों पर जीत मिली हो, लेकिन फिर भी भाजपा पूर्ण बहुमत को पाने में असमर्थ रही है. दरअसल जनता ने भाजपा को उनके समर्थन में नहीं बल्कि सत्ता के खिलाफ मतदान किया है. ये एंटी इन्कम्बसी का ही परिणाम है कि आज देश के ज्यादातर राज्यों में भाजपा सर्वाधिक  वोट हासिल कर राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है. लेकिन यहां यह भी उल्लेखनीय है कि झारखंड, हरियाणा, जैसे हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा ने अपने बूते पर अपनी पकड़ को पहले से मजबूत बनाया है.
          इसे अमित शाह का करिश्मा या मोदी की लहर की बजाय एंटी इन्कम्बसी के रूप में देखना चाहिए. कांग्रेस लव जिहाद, धर्मांतरण, संस्कृत शिक्षा, जैसे मुद्दे उठाकर वर्तमान सरकार को विकास के एजेंडावाले छवि से बाहर निकालना चाहती है. ऐसे में गुस्साई जनता के इस अर्धजनादेश को संभाले रखना भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण होगा. जिस तरह भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सार्वजनिक तौर पर यह स्पष्टï कर दिया कि वे धर्मांतरण के मुद्दे के खिलाफ हैं. उसी तरह उन्हें अपने समर्थकों को भी कट्ïटर हिंदुवाद का प्रदर्शन करने की बजाय सेकुलर विचारधारा को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा. बेहद मुश्किल और कड़ी मश्क्कत के बाद भाजपा न केवल केंद्र बल्कि कई राज्यों तक में सरकार बनाने में समर्थ हो पायी है. और अगर वह लंबे समय तक सरकार में बने रहना चाहती है, तो उसे जनता का विश्वास हासिल करना होगा. राजस्थान में भाजपा के विधायकों के गाली-गलौज भरे रवैये ने जनता को एक बार फिर निराश ही किया है. पिछली सरकार में जिस तरह नेताओं की छवि बिगड़ी है, उसे न केवल संवारने बल्कि और भी सशक्त बनाने का जिम्मा मोदी सरकार पर है.


विश्वास कायम रखने की जिम्मेदारी है सरकार पर
         इस बार के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में सबसे अच्छी बात यह रही कि जनता का विश्वास लोकतंत्र में पहले के मुकाबले बढ़ा है. जम्मू-कश्मीर में पिछले कई सालों के मुकाबले अधिक मतदाताओं ने वोट डाला है, तो वहीं झारखंड में पिछले २५ सालों में इस बार सर्वाधिक वोट दर्ज किए गए हैं. यह संकेत है कि लोग बदलाव चाहते हैं और उन्हें विश्वास है कि हमारी सरकार हमारा लोकतंत्र यह बदलाव ला सकता है. इसलिए मोदी सरकार पर अब केवल अपने सरकार को बनाए रखने की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि साथ ही लोकतंत्र में जनता के विश्वास को और भी मजबूत बनाने का दारोमदार भी मोदी सरकार पर ही है. वर्ना वो दिन दूर नहीं कि मोदी का स्वच्छता अभियान और विकास की राजनीति कहीं कोने में दबी पड़ी रह जाएगी और दूसरा अयोध्या कांड जन्म लेने लगेगा. 

 
मोदी परीक्षा

Wednesday, December 10, 2014

गुड गर्ल हो ना, अकेले मत जाना कहीं


- सोनम गुप्ता 

       एक बार फिर खिलवाड़ और अब एक और फरमान जारी- "अकेली कहीं नहीं जाना।"  टैक्सी, बस, ऑटो, ट्रेन कुछ भी सुरक्षित नहीं। इसलिए अब अकेले मत निकलना। भैय्या, चाचा, काका, मामा को साथ लेकर चलना। तुम्हे रोका जा सकता है। उन्हें रोकना गलत है। तुम मत निकलो। वो धड़ल्ले से सड़क पर निकलते रहेंगे, तुम्हे छेड़ते हुए, तुम्हारे कपड़ों को नापते हुए, सीटी बजाते हुए, तुम्हे देखकर अपने गुप्तांगों पर हाथ फिराते हुए...वे आज चौराहों पर मटरगस्ती करते मिलेंगे और आनेवाले कई दशकों तक भी वहीं मिलेंगे। तुम, हाँ तुम, तुम्हारे ही कारण बलात्कार होता है। तुम्हारे ही अंग को देखकर वो सीधे-साधे लड़के बिगड़ कर अचानक ही बलात्कारी बन जाते हैं। गलती तुम्हारी है। तुम बदलो। कपड़े बदलो, ढंग बदलो, रंग बदलो, खुद को बदलो। तुम कमरे में सिमटों। सदियों तक फिर-फिर खोल से निकलो और फिर उसी में घुंस जाओ। भीतर जितना हो सके उतने भीतर धंस जाओ।
        क्या करें, वो आवारा हैं। तुम ही संभल जाओ। वो प्लेटफार्म पर चढ़ते-उतरते मारते रहेंगे कुहनी, मौका मिलते ही भीड़ में स्तनों से लेकर गुप्तांगों तक मार देंगे हाथ। तुम तब भी संभल जाना। वे बिगड़ गए हैं तो क्या।  तुम देवी हो, तुम ममता का सागर हो, करुणा की मूर्ति हो, वात्सल्यता का रूप हो, लक्ष्मी, सरस्वती हो।  तुम काली या दुर्गा नहीं बनना। तुम अपनी बेल्ट निकालकर भीड़ में लड़कों को मत पीटना, उनके चेहरों को मत दबोचना, उनपर हाथ मत उठाना, छिः गन्दी- गन्दी गालियां तो बिलकुल मत बकना। तुम अच्छी लड़की बनकर रहना। वे गुड बॉय नहीं बन बन सकते। तुम संस्कारी, गुणी, रानी बिटिया बनो। वे हैवान बनते हैं तो बनने दो। तुम न उन्हें रोकना, न टोकना, बल्कि तुम तो अपना पल्लू गले तक चढ़ा लेना। कुर्ते को फुल स्लीव्स का बनवा लेना। जीन्स को फेंककर ढीली-ढाली सलवार सिलवा लेना। तो क्या हुआ अगर वे चड्ढी में नलके पर नहाते दिख गए, सड़क पर खुजाते मिल गए, पैंट की जीप लगाना बिसर गए, तुम अपनी आँखें कसकर मूंद लेना। मत देखना दुपट्टों के पीछे छिपे अंगों को ताड़ती उनकी नजरे, साड़ी के पार झांकती निगाहें, बुरखे को भी भेद सकनेवाली उनकी भूखी नज़रों को तुम मत देखना।
       तुम बनी रहना सिर्फ एक लड़की। खुद के फैसले न ले पानेवाली, नौकरी से खटकर घर और बच्चों को संभालनेवाली, अंधेरा होने से पहले घर के भीतर घुसकर दुबकनेवाली, वही गुड गल बने रहना। हम हैं न तुम्हारी सुरक्षा के लिए। हम सुरक्षा बढ़ा देंगे, कैदखाने बनवा देंगे। तुम उसी में इत्मीनान से रहना। हम हर उस चीज़ पर बैन लगा देंगे जो तुम्हारे गुड गल बनने के रास्ते में आएंगे, लेकिन तुम, तुम अकेले मत निकलना। तुम मान, मर्यादा, शोभा हो। वो कुल का दीपक हैं। अंतर है। बायोलॉजी कहती है अंतर है। तुम बच्चे पैदा कर सकती हो, वो नहीं। तुम इंसान पैदा हुई, वो नहीं। इसलिए इस अंतर को हमेशा याद रखना। गांठ बांध रखना। पढ़ाई छोड़ देना, नौकरी छोड़ देना, घूमना-फिरना भूल जाओ। अंतर है! तुम में और उनमे।  इसलिए तुम जीना छोड़ दो, चलना छोड़ दो, उड़ना छोड़ दो।  वे पकड़े जाएंगे, फिर छूट जाएंगे, उड़ जाएंगे, एक और जान दबोच खाएंगे, लेकिन बंदिश कभी नहीं...कभी भी नहीं पाएंगे।  इसलिए तुम ही सिमट जाओ, रुक जाओ, बदल जाओ और अगर न कर सको तो मर जाओ। 
अच्छी लड़की उर्फ़ कैद

Friday, December 5, 2014

नेता की दीवार का उखड़ा रंग उर्फ़ रुक गया विकास

- सोनम गुप्ता   

      बात शुरू हुई यहां से कि अमुख नेता को चुनाव हारने के बाद से पार्टी द्वारा सम्मान नहीं दिया जा रहा और बात नेताजी के सम्मान से न दाएं न बाएं सीधे क्षेत्र के विकास पर जा पहुंची। भई, जब बात निर्वाचन क्षेत्र के विकास की हो तो क्या पक्ष, क्या विपक्ष, सब एक हैं।  बात जनता की है।  बात विकास की है। फंड और अभियान की है। विचारधारा का क्या है वह तो अस्थाई है।  परिवर्तनशील है। विकासशील है। आज सेकुलर तो कल विकसित होकर हिंदूवादी भी तो बन सकते हैं न। अरे! जब देश का विकास हो सकता है, तो नेताजी के विचारों का विकास क्यों नहीं! वैसे भी आजकल विकास की लहर है। हर तरफ केवल विकास हो रहा है। व्यापार से लेकर सरकार तक। सबका विकास।
        हाँ, तो अमुख नेताजी पहले तो अमुख पार्टी में मंत्री थे। पार्टी में उनका खूब दबदबा था। शीश महल क्या अमेरिका तक को टक्कर देने के लिए नेताजी ने वाइट हाउस तक बनवा डाला। बात जनता के विकास की थी न! भारत की जनता अमेरिका के नक़्शे-कदम पर चलने के लिए हमेशा आतुर रहती है। उसे अमेरिका पसंद है। जनता क्या देश के मुखिया का टारगेट भी अमेरिका ही है, लेकिन जब से नेताजी चुनाव हारे हैं उनको कोई पूछता ही नहीं।
        हुआ यूं कि एक दिन वाइट हाउस में बैठे-बैठे नेताजी की नजर हाउस की सफेद दीवार के उखड़ते हुए पेंट पर पड़ गई। तब तुरंत ही उन्हें याद आया कि उनके निर्वाचन क्षेत्र का विकास रुका हुआ है। ठीक तब ही उन्हें एहसास हुआ उनका अपमान जनता के विकास मार्ग में बाधा है। वे तुरंत उठे और एक मीटिंग कर डाली। नतीजा यह निकला कि जो हमें न पूछें, हम भी उसे न पूछें।  नेताजी ने कह दिया भई, जनता विकास चाहती है और इस पार्टी में रहकर अब ये नहीं होने का। इसलिए हम अब विकासवाली पार्टी के पास जाएंगे। 

        बात जनता की है तो क्या अगड़े क्या पिछड़े, क्या तगड़े क्या लंगड़े,  क्या घोड़े क्या गदहे, ऐसे में तो खच्चर से भी समझौता किया जा सकता है। जिस पार्टी में फ़िलहाल नेताजी हैं उसकी विकास करने की क्षमता का एक्सपायरी डेट आ गया है। इसकी रिनिवल की उम्मीद चुनाव हारने के बाद भी थी। इसीलिए तो खुल्लम-खुल्ला बिन मांगा समर्थन सरकार को दे डाला, लेकिन सरकार ने ही ऐन वक्त पर मुंह फेर लिया। और रही-सही उम्मीद को किसी और का साथ पकड़कर चकनाचूर कर दिया सरकार ने। अब बगैर लाइसेंस के दूकान कितने दिन चलेगी। कुछ नई व्यवस्था तो करनी होगी। नयापन किसे नहीं पसंद। नेताजी भी उक्ता गए उसी पार्टी में रहते-रहते। विकास कार्य करते-करते। इसलिए नए विकास के लिए, जनता के लिए पार्टी बदलना जरुरी है। भई, बात जनता की है, विकास की है।      

दल-बदल की राजनीति


Monday, December 1, 2014

काशी के अस्सी की बकलोली

- सोनम गुप्ता 
       काशीनाथ सिंह  की "काशी का अस्सी" पढ़ना सबके बस की बात तो नहीं लगती। भले ही मैंने इसे प्रकाशन के बाद बहुत देर से पढ़ा, लेकिन निश्चित रूप से सही समय पर पढ़ा। सिंह की इस उपन्यासनुमा किताब को पढ़ने वाले पाठक टिपिकली हिंदी में "ऑल वेल, ऑल गुड" पढ़ने की इच्छा रखनेवाले तो बिलकुल नहीं हो सकते। किताब शुरू ही काशी की बोली भाषा को अपनाते हुए 'भोंसड़ी के' से होती है और अंत तक तो उत्तर भारत की देशी गालियों की एक भरी पूरी डिक्शनरी तैयार हो जाती है। ये गलियां यहां जरूरी भी थीं , वर्ना शायद इन वास्तविक पात्रों की कहानियों का वास्तविक फील हमें मिल ही नहीं पाता।
       भले ही इस किताब को व्यंग्य की कैटेगरी में न रखा गया हो, लेकिन इस किताब में जितने तीखे बाण समाज, सरकार, व्यवस्था और धर्म पर छोड़े गए हैं, उतने बिरले ही पढ़ने को मिलते हैं।
       इस किताब के बारे में बहुत लंबे समय से सुनते आ रही थी। पढ़ने की इच्छा भी बहुत दिनों से थी। संयोग बना और काशी का अस्सी हाथ लग गई और सच कहूं तो सही समय पर हाथ आई। काशीनाथ के साथ इस काशी की यात्रा सचमुच सुखद रही। बेहद रोमांचक और जानकारीपरक भी। अंत तक आते-आते तो काशीनाथ सिंह ने सचमुच भावुक कर दिया। समाज के भिन्न-भिन्न सो कॉल्ड "अच्छे लोग" के समूचे तबके को पूरा नंगा करके उनके नकली चेहरों को बेरंग कर दिया है काशीनाथ ने।
      जो लोग इस किताब को इसमें लिखी गयी गालियों और बोल्ड भाषा के लिए दरकिनार करते हैं, वे ऐसे महान व्यक्तित्व हैं, जो स्वप्नलोक में जीते हैं। जिन्हें यर्थाथ पसंद नहीं। काशीनाथ ने जो भाषा लिखी, वो पढ़ने में भले ही थोड़ी अटपटी लगे क्योंकि हमें आदत है सब अच्छा-अच्छा 'आईडयलिस्टिक' टाईप पढ़ने की, लेकिन यकीन मानिए उनके लेखन में कोई बनवाटीपना नहीं है, जो सच में है, उसे ही उन्होंने पन्नों पर उकेरा है। वास्तव में हमारे आस-पास लोगों की भाषा ऐसी ही है, शायद उन लोगों में हम भी शामिल हैं। हम शर्माते हैं बताने में कि हमारे पापा, दादा, चाचा, मम्मी, दादियों की जुबां पर ऐसी गालियां पूरी बेबाकी से छायी रहती हैं। ये सच है कि उत्तर भारत के हरेक जीव ने अपने घर में व्यंग्यात्मक कटाक्ष, गालियां, इत्यादि सुनी और खुद दी भी होंगी। ये हमारी संस्कृति का, हमारे जीवन का एक अटूट हिस्सा है।
        आज मादरचोद चुभता है लेकिन मदर फकर सभ्य लगता है। आज के युवा धड़ल्ले से फक ऑफ, फक यू बोल जाते हैं और ये बड़ा ट्रेंडी भी लगता है, लेकिन इसकी बजाय चोदूराम, चुदाई जैसे शब्द सबके कान खड़े कर देते हैं। गालियां देना जरुरी नहीं, लेकिन जहां वास्तिविकता में गालियां हैं उन्हें साहित्य के पन्नों पर भी स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। ऐसी ही गालियां हमारी भाषा में हैं, हमारे जीवन में थीं और भविष्य में भी रहेंगी। संभवत: उनका विकास हो जाए और वे महिलाओं के सेक्स से आगे बढ़ कर बापचोद तक पहुंच जाएं।


 
काशी का अस्सी और मेरी नजर

Sunday, October 12, 2014

मेरी सोसायटी में स्वच्छता अभियान


- सोनम गुप्ता


         सुबह-सुबह नींद किसी पुराने गाने की संगीत से खुली। आंख मचमिचाते हुए जब खिड़की के बाहर नजर पड़ी तो देखा सोसायटी में स्पीकर लगा है और सोसायटी के कुछ सदस्य वहां जमा हैं। मैं चौंक गई और सोचने लगी कि आज न तो 15 अगस्त है और न 26 जनवरी। फिर ये क्या? मुझे लगा कि कहीं सार्वजनिक छुट्टी के दिनों में कोई एक और इजाफा तो नहीं हो गया। खैर, दौड़कर किचन में गई और मम्मी से पूछा तो उन्होने बताया कि आज हमारी सोसायटी में स्वच्छता अभियान है।  मेरी नींद जो अब तक आधी-अधूरी खुली थी, वह पापा को स्वच्छता अभियान में जाने के लिए तैयार होता देखकर तो पूरी खुल गई।  
         तो जैसा कि तय था हमारी सोसायटी में सफाई अभियान शुरू हुआ। कुछ 8-10 सदस्यों ने शुरूआत की। सब ने मुंह पर मास्क लगाया, हाथ में दस्ताने पहने और शुरू हो गई सफाई। पहले सीढि़यों फिर पेड़-पौधों के बीच फिर देखते ही देखते सोसायटी की सड़कों तक झाड़ू ही झाड़ू दिखने लगे। आधे घंटे के भीतर ये 8-10 लोगों का समूह 20 लोगों का बन गया। 
          अपने हाथों से या अपने बच्चों द्वारा कल फेंके गए कूड़े- कचरें को सभी मोदीजी के स्वच्छता अभियान के तहत  आज साफ कर रहे थे। जिसे कल यदि इन्होने कूड़ेदान में फेंक दिया होता, तो शायद सफाई अभियान की नौबत ही नहीं आती। क्योंकि न रहेगा कूड़ा न होगी सफाई। खैर, सफाई अभियान में सब ने बहुत सच्चे मन और पूरी ईमानदारी से हिस्सा लिया। 
          सबसे देखने योग्य तो वो छोटे-छोटे मासूम बच्चे थे, जिन्होने केवल दस्ताने पहनने की लालच में सफाई अभियान में हिस्सा लिया था। वे झुंड में यहां-वहां गिरे पड़े टूटी टहनियों को ऊठाकर पूरे सोसायटी में घसीट कर सफाई अभियान का आनंद ले रहे थे। उनके लिए सफाई अभियान के मायने शायद दस्ताने और अपनी हाईट से भी ऊंची झाड़ू को घसीटने तक था। लेकिन हमारे लिए इस सफाई अभियान के मायने क्या हैं, ये सोचना बेहद जरूरी है। क्या सिर्फ  किसी संडे को अचानक उठकर झाड़ू लगाने तक या सड़कों पर पोस्टर व बैनर दिखाकर उन्हे उसी सड़क के किनारे फेंक देने में ही हमारी सफाई है। 
          सफाई अभियान हर रोज, प्रतिदिन हर समय निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है। जिसमें हमें हर समय दो झाड़ू लेकर खड़े रहना होगा। पहला झाड़ू अपने विचारों और मन की सफाई के लिए और दूसरा पर्यावरण में गंदगी फैलाने से अपने आप को और अपने दोस्तों और परिवार को रोकने के लिए। चलती ट्रेन से चिप्स के पैकेट, वाशी ब्रिज से हार-फूल की रंगीन झिल्लियां, सिगरेट, आईसक्रिम खाकर डिब्बे व स्टीकस् सड़कों पर फेंकना, जगह-जगह पर लाल रंग की पिचकारियां छोड़ना, गाड़ी की खिड़की खोलकर बोतल और अन्य कूड़ा कचरा सड़क के हवाले करना, आदि-आदि छोटे-बड़े  हमारी गंदगी फैलाने के कदमों पर झाड़ू लगाना बहुत जरूरी है। तब ही सही मायनों में सफाई अभियान सफल हो सकेगा। 
       

सोसायटी के सक्रिय सदस्य जिन्होंने स्वच्छता अभियान में हिस्सा लिया 


नायर अंकल इस अभियान के सबसे वरिष्ठ सदस्य 

नन्हे-नन्हे कदम सफाई की ओर





Tuesday, October 7, 2014

महिला उम्मीदवारों को टिकिट देने से कतराती हैं राजनीतिक पार्टियां

महाराष्ट्र की 288 सीटों पर 5 बड़ी पार्टियों की केवल 78 महिला उम्मीदवार

  • कांग्रेस ने सबसे ज्यादा महिला उम्मीदवारों को टिकट बांटा
  • महिला प्रत्याशी को टिकट देने में मनसे निकली सबसे फिसड्डी
  • मुंबई से शिवसेना की एक भी महिला उम्मीदवार नहीं


   सोनम गुप्ता

महाराष्ट्र देश का इकलौता ऐसा राज्य है, जहां स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। यह वही राज्य है, जहां से विधानसभा और लोकसभा में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की आवाज तेजी से बुलंद हो रही है। ऐसे में इसी महाराष्ट्र से उम्मीद रहती है कि यह राजनीति में महिलाओं को प्रोत्साहित करने में अग्रणी राज्य होगा। लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव में राज्य की बड़ी पांच राजनीतिक पार्टियों के कुल महिला उम्मीदवारों को जोड़कर भी 33 प्रतिशत महिलाओं को उम्मीदवारी नहीं मिल पायी है।
  कांग्रेस, राकांपा, भाजपा, शिवसेना और मनसे इन पांचों पार्टियों के यदि कुल महिला प्रत्याशियों के आकड़ों पर नजर डाला जाए तो ये केवल 27 प्रतिशत होगा। वहीं निर्दलीय रूप से व अन्य छोटी पार्टियों से लड़ रही महिला उम्मीदवारों को भी यदि इस आकड़े में जोड़ दिया जाए तब भी यह आकड़ा कुल उम्मीदवारों के एक तिहाई हिस्से से कम ही है।
  महाराष्ट्र में महिला मतदाताओं का अनुपात 47.02 प्रतिशत है। ऐसे में उम्मीद यही होती है कि इस आधी आबादी के नेतृत्व के लिए कम-से-कम उनके तबके के 40 प्रतिशत उम्मीदवार तो मैदान में ऊतरें। लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान भी सभी पार्टियां महिला उम्मीदवारों के प्रति उदासीन रहीं, तो वही महिला उम्मीदवारों के प्रति निराशाजनक रवैय्या विधानसभा चुनाव में देखने को मिला है।
    महाराष्ट्र में महिला मतदाताओं की संख्या 3 करोड़ 71 लाख है। लेकिन उनकी आवाज सरकार तक पहुंचाने के लिए चुनावी मैदान में पांच बड़ी पार्टियों द्वारा ऊतारी गई उम्मीदवारों की संख्या मात्र 79 है। कांग्रेस 25 महिलाओं को उम्मीदवारी देकर सबसे ज्यादा महिला उम्मीदवारों को टिकट देनेवाली पार्टी बन गई है। तो वहीं भाजपा ने 20 सीटों पर तो वहीं राकांपा ने 17 सीटों पर महिला उम्मीदवार ऊतारे हैं। वहीं शिवसेना ने केवल 11 सीटों पर महिला उम्मीदवार को दावेदारी सौंपी है। इन पांचों में से मनसे ने केवल 5 महिला उम्मीदवारों को टिकट देकर सबसे निचले पायदान पर है।
      उल्लेखनीय है कि ज्यादातर पार्टियों के सीट आवंटन पर गौर करेंगे, तो यह साफ तौर पर दिखाई देता है कि पार्टियों ने ज्यादातर मजबूरी में आकर ही महिला उम्मीदवार को टिकट दिया है। ज्यादातर इनमें वह सीटें शामिल हैं, जो अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। फिर चाहे वह धारावी विधानसभा सीट हो या श्रीरामपुर या फिर कैज जैसी अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटें।

1 प्रतिशत भी नहीं है मुंबई से महिला उम्मीदवार

मुंबई की 36 विधानसभा सीटों से कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना, राकांपा और मनसे के 180 उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं। जिनमे से केवल 16 उम्मीदवार महिलाएं हैं। यानि कुल उम्मीदवारों के एक प्रतिशत भी महिला प्रत्याशियों को दावेदारी नहीं मिल पायी है।
     भाजपा के 20 महिला उम्मीदवारों में से 6 सीट तो मुंबई की ही हैं। दहिसर, जोगेश्वरी पूर्व, गोरेगांव, वर्सोवा, धारावी और शिवड़ी विधानसभा सीट से भाजपा ने महिला प्रत्याशियों को उम्मीदवारी सौंपी है। वहीं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने मुंबई की केवल घाटकोपर पूर्व और अंधेरी पश्चिम इन दो विधानसभा सीटों पर महिला उम्मीदवार ऊतारे हैं। कांग्रेस ने भी दहिसर, धारावी, कुलाबा और मलबार हिल इन सीटों से महिला प्रत्याशियों को दावेदारी सौंपी है। तो वहीं महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की पांच महिला उम्मीदवारों में से चार तो मुंबई के दिंडोशी, कुर्ला, बांद्रा पूर्व और दहिसर से ही हैं।
    वहीं शिवसेना ने मुंबई के 36 विधानसभा सीटों में से एक भी सीट पर महिला प्रत्याशी को नहीं ऊतारा है। मजे की  बात तो यह है कि महाराष्ट्र की कैज विधानसभा सीट इकलौती ऐसी सीट हैं, जहां सभी पार्टियों ने अपनी-अपनी महिला उम्मीदवारों को चुनावी जंग में खड़ा किया है।
जहां विज्ञापनों से लेकर न्यूज चैनलों की चर्चा तक में महिलाओं को बराबर की हिस्सेदारी देने की बात कही जा रही है। साथ ही चुनाव के  दौरान युवाओं की तरह महिलाएं भी राजनीतिक दलों के लिए एक खास वोट बैंक बनी हुई हैं। वहां महिला उम्मीदवारों को टिकट देने के प्रति इतनी उदासीनता राजनीतिक पार्टियों के दोगुलेपन का खुलासा करती हैं।

पार्टी
महिला उम्मीदवार
कांग्रेस
25
भाजपा
20
राकांपा
17
शिवसेना
11
मनसे
5


Wednesday, October 1, 2014

सफाई अभियान उर्फ़ झाड़ू के आ गए अच्छे दिन

-  - सोनम गुप्ता 

बाजार में जैसे सोने का भाव आसमान छूता है, वैसे आज-कल झाड़ू की कीमतें आसमान छू रही हैं। क्योंकि आज-कल नेता कलम नहीं झाड़ू ऊठाने के मूड में है। सबको झाड़ू लगाना है। मुखिया सफाई पसंद आदमी है। इसलिए सब देश का कूड़ा-कचरा साफ करने में लगे हैं। गोमती से यमुना, गंगा,घाघ , सरयू, इत्यादि नदियों को साफ करने और उनके किनारों को चमकाने का बीड़ा भी सरकार ने उठा लिया है। 
           
जिसे देखो बीच सड़क, मैदान, स्टेशन, स्टॉप, आदि-आदि जगहों पर झाड़ू के साथ फोटो खिंचवा रहे हैं। झाड़ू को भी कुछ-कुछ सैलिब्रिटीवाली फिलिंग आने लगी है। वैसे भी दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद से सुर्खियों में आई झाड़ू को खबरों में रहने की आदत-सी पड़ गयी है। 
           
दरअसल, सारी सरकारें कूड़ा साफ करने की शौकीन होती हैं। पता नहीं मंत्रालय की दिवारों में क्या जादू है, कि कुर्सी हाथ में आते ही सब साफ-सफाई पर ऊतारू हो जाते हैं। सभी भिन्न-भिन्न प्रकार के गंदगी को हटाने के लिए स्वच्छ भारत का अभियान चलाते हैं। तब ही तो एक सरकार ने गरीबी नामक कूड़ा साफ करने की बात की थी। तो इस नई सरकार ने नदियां, सड़के, गांव, मोहल्ला और शहर सबकुछ साफ करने की बात की है। 
      प्रधानमंत्री ने झाड़ू उठाने की बात क्या की। मंत्री के हमेशा चौकन्ने रहनेवाले कानों ने इस बात को सुन लिया और झाड़ू लगाने निकल पड़े देशभर में। यहां मंत्री ने झाड़ू उठाया तो वफादारी दिखाने को आतुर अधिकारी ने भी उठा लिया। अधिकारी ने झाड़ू उठाया तो फिर चपरासी को भी उठाना पड़ा। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में झाड़ू तंतर का गृह प्रवेश हो गया है।  
    वैसे झाड़ू देखते ही एक और सरकार की याद आती है। दिल्ली की अल्पकालीन आम आदमी पार्टी की सरकार। इस सरकार को भी साफ-सफाई का बहुत शौक था। केजरीवाल नामक इस सफाई पसंद पार्टी के मुखिया को तो सफाई करने का इत्ता शौक था, कि उन्होने अपने पार्टी का चुनाव चिन्ह ही झाड़ू रख लिया था। ये चाहते थे कि लोग सेाते-बैठते, ऊठते-जागते सिर्फ झाड़ू और झाड़ू करें। झाड़ू को देंखे, झाड़ू को लगाए और उसी झाड़ू को घर में सजाए। ये लोग अपने झाड़ू से देश से भ्रष्टाचार का सफाया करना चाहते थे। लेकिन इनका झाड़ू मेड इन चायना निकला। कमजोर  झाड़ू ने इनकी सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया और भ्रष्टाचार की सफाई से पूर्व केजरीभाई का सूपड़ा साफ हो गया। 
     वे भूल गए थे कि झाड़ू पर बैठकर उड़ान नहीं भरी जा सकती। कोई झाड़ू को कुर्सी पर नहीं बिठाता। झाड़ू की पूजा तो साल में केवल एक ही दिन दीपावली पर होती है। बाकि, दिन तो वह अकेले कहीं कोने में पड़ी रहती है। 
वैसे मोदी के इस सफाई अभियान से झाड़ू बेचनेवालों का खूब फायदा हुआ है। एक बार पहले जब केजरीवाल ने झाड़ू अपनाया था, तब भी झाड़ू का बाजार चढ़ गया था। अब मोदी के अभियान ने फिर से झाड़ू की विक्री बढ़ा दी है। सुना है, घूरे के दिन फिरते हैं। यहां तो घूरा साफ करनेवाले झाड़ू के भी दिन फिर गए हैं। हर कोई झाड़ू के संग अखबारों के पन्नों और चैनल की जगमगाहट में चमकना चाहता है। इस झाड़ू लगाओ कार्यक्रम के माध्यम से सरकार अन्य राजनितिक पार्टियों के इरादों पर भी झाड़ू लगाने की कोशिश में है। 
      झाड़ू के अच्छे दिन गए हैं। इस बात को केवल नेता नहीं बल्कि अभिनेतागण भी बखूबी समझ गए हैं। इसीलिए तो 80 के दशक की सुपरहिट अदाकारा रेखा ने भी फिल्मों में अपनी वापसी के लिए झाड़ू का ही सहारा लिया है। उन्होने हल का स्थान झाड़ू को देकर हमारे देश में झाड़ू के महत्त्व को भी उजागर किया है। 
     स्मृति ईरानी से राजनाथ सिंह तक सबने झाड़ू लगाकर देश की सफाई की शुरूआत कर दी है। अब ये तो समय ही बताएगा कि मंत्री से संतरी तक के इस झाड़ू लगाने की नई नीति क्या इस देश और इस नई सरकार के दिन बदल पाएगी।  लेकिन तब तक ये तो तय है कि किसी के दिन बदले बदले  इस झाड़ू तंतर से झाड़ू के दिन जरूर फिर गए हैं।