Tuesday, December 18, 2012

बढती कीमतों से हताश आम जनता


      मुंबई में पेट्रोल की कीमत महीने-दर-महीने बढती जा रही है। अप्रैल से सितम्बर के बीच ही पेट्रोल की कीमते 75 के पार जा चुकी है। पेट्रोल के साथ डिजेल और सीएनजी की कीमतों में भी बढ़ोतरी हुई। महंगाई का असर पिछले 3 सालों से केवल पेट्रोल ही नहीं बल्कि अन्य  कई महत्त्वपूर्ण वस्तुओं पर पढ़ा है। खाद्यानो की कीमतों में भी पिछले 6 महीनो में काफी उछाल आया है। इस पर भी सोने पर सुहागा हालहिं में सरकार  ने एलपीजी सिलिंडर की कीमतों को बढा दिया साथ ही साल में 6 से अधिक सिलिंडर उपयोग करने पर अधिक कीमत अदा करने पर रोष का माहौल रहा। अगर साल में 6 से अधिक सिलिंडर की आपको जरुरत पड़ी तो बाजार में उसकी कीमत 399 से बढ़कर 746 हो जाएगी। देश भर में सरकार के इस फैसले के खिलाफ महिलायों ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किये। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महंगाई पर बात करते वक़्त हालहिं में कहा,"पैसे पेड़ पर नहीं उगते।" देश के प्रधानमंत्री के ऐसे बयान  से देश की जनता को बेहद निराशा हुई। साथ ही उनका गुस्सा सरकार की ओर  बढ़ गया।  नवी मुंबई के ऐरोली की श्रीमती अनीता भुर्के वस्तुओं की बढती कीमतों पर कहती है,"रोज एक एक जरुरी सामान की कीमत बढ रही है। अब घर का बजट तैयार करने में बहुत समस्या होती है।" वाशी की 46 वर्षीय सौम्या राजदान पेशे से प्रोफेसर है। वे कहती है,"एलपीजी की बढ़ी कीमतों से केवल रसोईघर का बजट डगमगा गया है। बल्कि साथ ही गाड़ी का खर्च, यातायात के व्यय में भी बहुत बढ़ोतरी हुई है। मैं और मेरे पति दोनों ही कमाते है। फिर भी बढती कीमतों ने घर चलाना मुश्किल बना दिया है।" दादर की 36 वर्षीय  गृहणी नंदिता गुप्ता कहती है,"अब तो मैं गैस का इस्तेमाल बहुत सोच-समझ कर करती हूँ। साथ ही मैंने तो इलेक्ट्रॉनिक चूल्हा ले लिया है।" सभी अपने अपने तरीके से इस बढ़ी कीमतों से निबटने की कोशिश में लगे हुए है। मध्यवर्गीय परिवार की 38 वर्षीय रहीना शौकत महंगाई का सारा दोष सरकार को देते हुए कहती है,"बड़े लोगो को गैस, सिलेंडर के भाव बढ़ने से क्या फर्क पड़ेगा। कमर तो हमारी टूट रही है। अब खीर-पकवान तो त्योहारों पर ही बनाना होगा। क्योंकि वैसे तो 2 वक़्त का खाना ही नसीब हो जाये बड़ी बात है।" पेट्रोल और डिजेल की मूल्यों में वृद्धि से 4 पहिया गाड़ीवाले 2 पहिये पर गए है। इस पर एक बड़े बैंक में काम कर रहे प्रशांत डाके का कहना है," पहले मैं रोज ऑफिस अपनी कार से आता-जाता था। तक़रीबन 200-300 रूपए पुरे दिन में मेरी गाड़ी का खर्चा हो जाता। लेकिन अब 500 रुपये से भी ज्यादा व्यय हो जाता है। इसलिए मैंने अपनी बाइक निकाल ली है। देखते है कब तक यह बजट में बैठती है।" वही रिक्शा के किराये में बढ़ी कीमतों ने मध्वार्गीय जनता की कमर तोड़ दी है। 68 वर्षीय सुशील मोंडल अपनी बची-खुची पेंसन को आज-कल की कीमतों के सामने घुटने टेकते देख कहते है,"सोचा था, बुढ़ापे में बच्चो के सामने हाथ नहीं फैलना पड़ेगा। रिटायरमेंट के बाद के लिए इतना जमा कर रखा था। लेकिन मेरी आधी जमा राशी तो शुरू के कुछ ही सालों में ख़त्म हो गयी। कहा मजे से अपना बुढ़ापा गुजरने के सपने लिए बैठा था और कहा अब जरूरतों को ही पूरा कर लू। वही बड़ी बात लगती है।" पिछले 3 सालों में रोजमर्रा की वस्तुओं में कीमतों की बढ़ोतरी को देखते हुए 28 वर्षीय मेहुल सावला कहते है,"अब मैंने अपने घर के बजट को लेकर कोई निश्चित सीमा तय करना ही छोड़ दिया है। सरकार  का कोई भरोसा नहीं। कब किस चीज़ की कीमत बढ़ जाये, कब आपका पूरा प्लान चौपट हो जाये। आप इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते।" देश की जनता जिस महंगाई की मार से त्राहि-त्राहि कर रही है, उस पर सरकार इतनी लाचार, निष्क्रिय और दिशाहीन क्यों दिखाई दे रही है? प्रधान मंत्री, वित्तमंत्री, कृषि एवं खाद्य मंत्री और सरकार में बैठे विशेषज्ञ बार-बार दिलासा देते रहे कि यह कुछ महीनों में काबू में आ जाएगी। लेकिन ये सारी दिलासाएं झूठी निकली। जिस सरकार का प्रधानमंत्री अर्थशास्त्री हो, उस सरकार से ऐसी अर्थ व्यवस्था निराशाजनक है।

-सोनम गुप्ता