Monday, December 1, 2014

काशी के अस्सी की बकलोली

- सोनम गुप्ता 
       काशीनाथ सिंह  की "काशी का अस्सी" पढ़ना सबके बस की बात तो नहीं लगती। भले ही मैंने इसे प्रकाशन के बाद बहुत देर से पढ़ा, लेकिन निश्चित रूप से सही समय पर पढ़ा। सिंह की इस उपन्यासनुमा किताब को पढ़ने वाले पाठक टिपिकली हिंदी में "ऑल वेल, ऑल गुड" पढ़ने की इच्छा रखनेवाले तो बिलकुल नहीं हो सकते। किताब शुरू ही काशी की बोली भाषा को अपनाते हुए 'भोंसड़ी के' से होती है और अंत तक तो उत्तर भारत की देशी गालियों की एक भरी पूरी डिक्शनरी तैयार हो जाती है। ये गलियां यहां जरूरी भी थीं , वर्ना शायद इन वास्तविक पात्रों की कहानियों का वास्तविक फील हमें मिल ही नहीं पाता।
       भले ही इस किताब को व्यंग्य की कैटेगरी में न रखा गया हो, लेकिन इस किताब में जितने तीखे बाण समाज, सरकार, व्यवस्था और धर्म पर छोड़े गए हैं, उतने बिरले ही पढ़ने को मिलते हैं।
       इस किताब के बारे में बहुत लंबे समय से सुनते आ रही थी। पढ़ने की इच्छा भी बहुत दिनों से थी। संयोग बना और काशी का अस्सी हाथ लग गई और सच कहूं तो सही समय पर हाथ आई। काशीनाथ के साथ इस काशी की यात्रा सचमुच सुखद रही। बेहद रोमांचक और जानकारीपरक भी। अंत तक आते-आते तो काशीनाथ सिंह ने सचमुच भावुक कर दिया। समाज के भिन्न-भिन्न सो कॉल्ड "अच्छे लोग" के समूचे तबके को पूरा नंगा करके उनके नकली चेहरों को बेरंग कर दिया है काशीनाथ ने।
      जो लोग इस किताब को इसमें लिखी गयी गालियों और बोल्ड भाषा के लिए दरकिनार करते हैं, वे ऐसे महान व्यक्तित्व हैं, जो स्वप्नलोक में जीते हैं। जिन्हें यर्थाथ पसंद नहीं। काशीनाथ ने जो भाषा लिखी, वो पढ़ने में भले ही थोड़ी अटपटी लगे क्योंकि हमें आदत है सब अच्छा-अच्छा 'आईडयलिस्टिक' टाईप पढ़ने की, लेकिन यकीन मानिए उनके लेखन में कोई बनवाटीपना नहीं है, जो सच में है, उसे ही उन्होंने पन्नों पर उकेरा है। वास्तव में हमारे आस-पास लोगों की भाषा ऐसी ही है, शायद उन लोगों में हम भी शामिल हैं। हम शर्माते हैं बताने में कि हमारे पापा, दादा, चाचा, मम्मी, दादियों की जुबां पर ऐसी गालियां पूरी बेबाकी से छायी रहती हैं। ये सच है कि उत्तर भारत के हरेक जीव ने अपने घर में व्यंग्यात्मक कटाक्ष, गालियां, इत्यादि सुनी और खुद दी भी होंगी। ये हमारी संस्कृति का, हमारे जीवन का एक अटूट हिस्सा है।
        आज मादरचोद चुभता है लेकिन मदर फकर सभ्य लगता है। आज के युवा धड़ल्ले से फक ऑफ, फक यू बोल जाते हैं और ये बड़ा ट्रेंडी भी लगता है, लेकिन इसकी बजाय चोदूराम, चुदाई जैसे शब्द सबके कान खड़े कर देते हैं। गालियां देना जरुरी नहीं, लेकिन जहां वास्तिविकता में गालियां हैं उन्हें साहित्य के पन्नों पर भी स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। ऐसी ही गालियां हमारी भाषा में हैं, हमारे जीवन में थीं और भविष्य में भी रहेंगी। संभवत: उनका विकास हो जाए और वे महिलाओं के सेक्स से आगे बढ़ कर बापचोद तक पहुंच जाएं।


 
काशी का अस्सी और मेरी नजर

3 comments:

  1. तुमने बेबाकी से अपनी बात कही जो काशीनाथ सिंह की किताब का सार्थक होना ही है . काश, काशीनाथ अपनी किताब पर किसी युवा लडकी की इस टिप्पणी को पढे .../ हिंदी मे गालिया सीधे चोट पहुंचाती है किंतु यह आमबोलचाल की भाषा में इतनी रच बस गई है जो बात बात मे कब बोल दी जाती है पता ही नही चलता / अंग्रेजी मे जो गालिया है वो इसलिये हमे हिंदी से कूल लगती है क्योंकि उसकी समझ मे हम अधिकतर बौने है ..../ ये किताब जो है , वो है वाली है ..जितने ताने बाने बुने गये है वे सब यथार्थ पर आधारित है ..../ इससे बेहतर तुम्हारा सोचना और लिखना हुआ जिसे सो काल्ड 'बोल्ड' कह दिया जाता है / पर क्या बोल्ड .../ आपने एक स्थिति और उसकी क्रिया -प्रतिक्रिया को ठीक ठीक उसी अंदाज मे लिखा जो है ...मगर समाज को बनावट चाहिये ...वह बनावट मे जीता है और उसमे भी किसी युवा लडकी द्वारा इतना सब लिखना तो गोया बिगड ही जाना माना जाता है / किंतु बिगडना इसे नहीं बल्कि उनका होता है जो ऐसी सोच रखता है और खुद की गंदेली चीजो को सही मानकर चलने का दुष्कर्म करता है / बहरहाल, सोनम, टिप्पणी ठीक उपन्यास की तरह ही है और अपशब्द शब्दो की महत्ता को तब बिगाडते है जब अनावश्यक हो ...अनावश्यक शब्द ही गालिया बन जाती है और इस शरीर के हिस्सो को माध्यम बनाकर उसे पेश किया जाता है ....तुमने तो कुछ भी अनावश्यक नही लिखा इसलिये वे न तो गालिया है न ही अपशब्द / पढती रहो .....साहित्य ने हमे बहुत सी सामग्रिया परोसी है ....

    ReplyDelete
  2. सोनम जी, आपने इतनी सरलता से, so called bold language में इस किताब " काशी का अस्सी " पर टिप्पणी की, वह सचमुच हर भारतीय के मन की बात है.
    आप ने जिस तरह से इस किताब का विशलेषण किया है, वह आपके अंदर के साहित्यकार को उजागर करता है. मैं आपका प्रशंसक हो गया हूँ .
    आपका यह प्रशंसक आपसे यह सप्रेम निवेदन करता है कि अपनी इस प्रतिभा को विश्व पटल पर आने दें.
    सोचो मत . . . . .
    लिखा डालो एक किताब. . . . . . .
    इसकी माँ की आँख......
    देखा जाएगा........

    ReplyDelete
  3. आज भी गालियों के वजह से मर्डर हो जाते है .. लात जूते खाने पड़ते हैं .. दोस्ती दुश्मनी में बदल जाती है .. फर्क सिर्फ उनको नहीं पड़ता जो गालियां भोजन की तरह खाने के आदि हो .. जिनका फ्रेंड सर्किल गालीबाजो से भरा पड़ा हो .. इन्होंने काशी को बदनाम किया है .. ये कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े वामपंथी लेखक है .. इसलिए हिन्दू धर्म।को बदनाम करने की कोशिश की है

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणिया बेहद महत्त्वपूर्ण है.
आपकी बेबाक प्रातक्रिया के लिए धन्यवाद!