Tuesday, April 3, 2012

वो बेफिक्र बचपन


आज ट्रेन में १२-१३ साल के छोटे बच्चें से मुलाकात हुई. स्कूल के यूनिफार्म में वह मुझसे काफी दूर बैठा था पर मेरी नज़रों की सीमा के भीतर... जब मेरी नजर उसपर पड़ी तो वह अजीब-अजीब से भाव अपने चेहरे पर बनाता नजर आया. कभी नाक सिकोड़ता तो कभी भौवें चढ़ाता, तो कभी अपने होठों से तरह-तरह के आकार बनाता और कई बार तो सिर को ही घुमा देता...उसे देख कर मुझे लगा की वह असामान्य, विशेष बालक है. लेकिन जब कुछ देर बाद वह अपने मूल रूप में आया और अपने चेहरे के भावों को एक-एक कर ठीक करने लगा ...तब पता लगा की वह हमारी ही तरह साधारण बच्चा है. वह तो केवल मस्ती कर रहा था. अपनी नन्ही सी जिघ्यासाओं भरी दुनिया में सैर-सपाटा कर रहा था.बचपन में हम कितने बेफिक्र होते है. हमे दुनियां, समाज, लोगों से कोई मतलब ही नहीं होता. बगैर अपने आस-पास के लोगों की परवाह किये. अपने मैले कपड़ों, चौकोलेट से रंगे मुंह, मिटटी से सजे हाथो के साथ अपनी ही दुनिया में खोये रहते है. न कोई फ़िक्र, न कोई हिचक और न ही कोई शर्म होती है. बस मस्तमौला अंदाज़ में जो जी में आया पहन कर, जैसा मन किया वैसा करते, गिरते-पड़ते चलते. यह तो था हमारा सुनहरा चिंतामुक्त बचपन, अब तो यहाँ पहनावे से लेकर चाल तक हम अपने आस-पास के लोगों, समाज को ध्यान में रख कर करते है. वो क्या कहेंगे, वो क्या सोचेंगे, अगर खाना हाथ से खा लिया तो इज्ज़त ना चली जाये, इत्यादि. अपने से ज्यादा लोगों की सोच और इच्छा की परवाह होती है. मन तो करता है सबका की आज भी दाल चावल अपनी उँगलियों से खाएं पर कमबख्त यह इज्ज़त और स्टेटस की चिंता हमारे हाथो में छूरी और काटा पकड़ा देती है. आज भी मन करता है कि जोर से खुल कर हसे पर लोगों में फजती न हो जाये इसलिए होठ एक निश्चित सीमा तक ही खुलते है न कम न ज्यादा, दिल करता है कि कभी वो बचपन के कुछ खेल खेल ले ...लेकिन अब कहा वो निस्वार्थ दोस्त रह गए जो केवल हमारे साथ के लिए हमारे साथ अपना खिलौना बाटें, अपने नापसंद डिब्बे को दे कर, हमारा टीफिन मांग ले और यह भी कहे की "देख यार, मम्मी को पता नहीं चलना चहिये, तू किसीको बताना मत वरना खूब डांट पड़ेगी." मन तो अभी करता है पर लोक लज्जा हाथों को बढने ही नहीं देते. सामनेवाला हमे लालची न समझ ले. हाय! काश वो बचपन हमेशा साथ होता, काश अब भी हम बेफिक्र हो अपने मर्ज़ी के मुताबिक चलते, जो जी में आता वो करते. प्यार और सौह्याद्र के आलावा कुछ न समझते. काश स्वार्थ, लोभ, इर्शिया जैसे कुलक्षण हमे छू भी न पाते. काश यह हमारी मां के डांट से डरते और हमसे दूर कही चले जाते. काश अब भी हमारी दुनिया पिताजी के १० रुपयें में और मां की गोद में ही सिमटी रहती.


1 comment:

  1. duniyaa ke dar se hum apne aap ko kuch jyaadha hi seemith kar lethe hai.....jo swadh haathon se khaane mai aathi hai woh....kisi aur cheez se kahaan....samaj ki soch jaise thi waisi hi rahegi....hume apne aapko is...dongi jeevan se bahar nikaalna hai...jahaan har ek kaam hum dar ke saath kar rahe hai...kuch khone ka dar..galthi karne ka dar ..is tarah hum kuch nayaa seekne ka moka gawa dete hai.....

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