Friday, October 23, 2015

देर्द और देर्दा का दर्द है दफ़्न होती ज़िन्दगी

तुर्की साहित्य की मेरी पहली किताब दफ़्न होती ज़िन्दगी है, जिसका नाम तुर्की में ए ज़ेड है। हाकान गुंडे के इस उपन्यास का कवर देखकर तो इसे पढ़ने की इच्छा नहीं हुई। वास्तव में तुर्की भाषा में इस किताब का कवर जितना उम्दा है, हिंदी अनुवाद का उतना ही बेकार। लेकिन जब इस किताब को पढ़ना शुरू किया, तो करीब आधे से ज्यादा उपन्यास को दो बार से ज्यादा पढ़ा। संवेदनाओं को झंकझोर कर रख देनेवाली इस किताब को पढ़ना पहले तो एक गहरे काले गुफा से होकर निकलना है फिर अविश्वसनीय जिंदगियों से रूबरू होना। हो सकता है शुरू में देर्दा की कहानी आपको बांध न पाए। लेकिन कुछ पन्नों का सय्यम और फिर आप इसे पूरा किए बगैर चैन नहीं पाएंगे।
तुर्की के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता। सच कहूं तो इस किताब को पढ़ने से पहले तो कुछ भी नहीं पता था बजाय इसके कि वहां आए दिन आतंकवादी हमले होते रहते हैं। इसलिए हो सकता है कि इस किताब को पढ़ते वक्त कई चीज़े आपको समझ न आए या कुछ चीजों से आप जुड़ ही न पाएं।
देर्दा की कहानी बीच-बीच में अविश्वसनीय लगने लगती है। लेकिन इस्तानबुल और तुर्की की सामाजिक व्यवस्था, परिवेश और वहां महिलाओं की स्थिति के बारे में थोड़ा कुछ भी अगर इन्टरनेट पर खंगालेंगे तो तय है कि देर्दा की कहानी पर न चाहते हुए भी वास्तविकता का स्पर्श महसूस होने लगेगा।
कहानी के अगले मुख्य पात्र देर्द की बात करूं तो वह आपको आकर्षित करने के साथ ही साथ आपके मन में खौफ पैदा कर सकता है।
देर्दा और देर्द की कहानी अलग-अलग माहौल और कठनाईयों के बीच से होती हुई अंत के दस पन्नों में एक होती है। हाकान गुंडे ने जिस तरह दोनों पात्रों को मिलाया है, यकीनन वह किसी फिल्म का एक सीन हो सकता है। खैर, पूरा उपन्यास काफी वास्तविक लगता है केवल अंत के कुछ पन्नों को छोड़ दें तो। लेकिन विरोधाभास यह कि इसका अंत मुझे काफी पसंद आया। देर्द और देर्दा की जिंदगी का दर्दनाक सफ़र अंत में सुखद साथ बनता है। किताब बहुत जगह आपको भावुक कर सकती है।
तुर्की साहित्य की पढ़ी जानेवाली मेरी पहली रचना जो कि वर्ष 2011 में तुर्की की सर्वश्रेष्ठ उपन्यास भी रह चुकी है, को पढ़कर यकीन हो गया कि औरतों और गरीबों की दशा ज्यादातर देशों में कमोबेश एक जैसी ही है।
किताब का कवर

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