Sunday, March 17, 2013

नहीं ला पाया अम्मा और बाबू को

छोटा-सा घर हो,
आंगन में तुलसी,
और छत पर हिंडोला हो,
कमरे में सजी हो,
बेंत की आराम कुर्सी,
जिस पर बाबू बैठकर,
पढ़ रहे हो,
सुबह का अखबार,
अम्मा काढ रही हो,
मेज पोस,
बीबी सजा रही हो मुहार,
बच्चे गार्डन में खेले,
दादा के संग घुमे,
दादी की कहानियों में,
बीते उनकी हर रात,
साथ रहे सब,
मिलजुलकर,
दिन दुगनी-रात चौगुनी,
बढे हमारे बीच का प्यार,
पर मुंबई शहर में,
नहीं मिला,
दो कमरे का कमरा,
आँगन की जगह,
मिली दो फुट की गैलरी,
जहां जूते-चप्पल का बना स्टैंड,
बेंत की आराम कुर्सी,
गद्देदार, महंगे,
सोफों के बीच,
(पत्नी को,)
स्टेटस की नहीं लगी,
ओल्ड फैशन की बनकर,
एक दिन,
कबाड़ में बिक गयी,
सुबह का अखबार,
अलंकार हीन मुहार पर,
बिखरा पड़ा रहा,
सजा था मेज पर,
मखमल का विदेशी कंचुक,
गार्डन में नौकरानी के साथ,
बच्चे जाते रोज शाम,
बचपन में किया था वादा,
और यौवन के पायदान पर,
रखते हुए पहला कदम,
सजाया था सपना,
मन के भीतरी एक कोने में,
जब जाऊंगा शहर,
बन जाऊंगा कमाऊ पूत,
और अपने पैसों से,
बनाऊंगा मकान,
ले जाऊंगा संग,
अम्मा-बाबू को,
रखूँगा साथ उन्हें अपने,
नहीं बनूंगा नालायक बेटा,
२० सालों में,
खूब कमाया पैसा और नाम,
लेकिन फिर भी,
अपने मकान पर,
नहीं ला पाया अम्मा और बाबू को,
नहीं बना पाया,
अपने सपनों का वह नन्हा घर ...


4 comments:

  1. bahut ache padh ke acha lga ..dil se bahut acha lga..

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  2. वर्तमान समय की समस्या से परिचित कराती रचना l .... कडवी सच्चाई। पढ़ाने के लिए धन्यवाद l

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आपकी टिप्पणिया बेहद महत्त्वपूर्ण है.
आपकी बेबाक प्रातक्रिया के लिए धन्यवाद!