वो देशवासी!भारत को देखो,
कैसे इसका रंग है उतरा,
सूना पड़ा है आँगन इसका,
लुट गया है सम्मान जिसका.
शूर - वीर इसके हैं हार रहे,
धरती पर न अभिमान करे,
दुखी है यह माता हमारी,
रक्क्त-रंजित हो रही चुंदरी सारी.
कहती हैं जनक-जननी हमसे,
करता नहीं कोई प्यार मुझसे,
रक्षक ही है भक्षक बन रहे,
ममता को मेरे न समझ रहे.
भाई - भाई यहाँ लड़ रहे,
हिन्दू-मुस्लिम का भेद कर रहे,
दो गज जमीन पाने को,
भाई - चारे को भुला रहें.
प्रेम आपस का है मिट रहा,
कलह का यहाँ जन्म हुआ,
दे रहें कष्ट बेटे माँ को,
उसके गौरव का न ध्यान रहा.
हैं हम उन गोरो से भी निर्दयी,
जिन्होंने ने लूटा था गैरों की माँ को,
हम तो मारे हैं यहाँ अपनो को,
दे रहें दुःख आपनी जननी को.
ओ मेरे प्यारे बंधुओ,
याद करो उस माँ के आँचल को,
जो था साथ प्रति क्षण तुम्हारे,
कैसे भूल गए उसकी ममता को,
जो है हर पल न्योछावर तुम पर.
good
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