Thursday, May 5, 2011

सीट का विवाद…



औरतें प्राय: लड़ने-झगड़ने के लिए बेहद प्रसिद्ध होती है. फिर चाहे, बात शहरों की हो या अविकसित ग्रामीण क्षेत्रों की. मुंबई शहर की जीवनरेखा मानी जानेवाली रेलगाड़ियों में भीड़ देखना कोई असाधारण बात नहीं. वह भी आफिस के समयों पर तो ऐसा महसूस होता है जैसे यात्रिगनों को रेलगाड़ी नहीं बल्कि रेलगाड़ी को यात्रिगन धक्के दे कर चला रहे हो. लेडीस कम्पार्टमेंट-महिलायों के लिए आरक्षित डिब्बा...इसमें सफ़र करना कोई चुनौती से कम नहीं...ख़ास कर तब जब वहां तिल रखने भर की जगह हो. मैं अक्सर सफ़र के वक़्त सोचती थी कि महिलाएं इतनी दयालुं होती है तो फिर क्यों वे रेलगाड़ी में एक सीट को लेकर इतना झगड़ती है, इतना परेशान होती है. कभी-कभी तो सीट को लेकर उनके बार-बार पूछे जाने वाले सवालों पर खीज होती थी...हर एक स्टेशन के गुजरने के बाद हर नयी महिला एक ही सवाल करती- बहनजी आप कहा उतरेंगी...? यहाँ तक कि अगर आप अपने सपनो की दुनियां में खो गए हो तो...उन्हें ज्यादा वक़्त नहीं लगता है आप को उस काल्पनिक दुनियां से वास्तविक दुनियां तक बेरहमी से खीच लाने में और अपने सवाल को आपके सामने बेझिजक रखने में
सोचती थी पुरुष कम्पार्टमेंट में सीट को लेकर इतनी झड़प कभी देखी थी. तो फिर ममातामयं, दयावान,सुलझी हुयी स्त्रियों में इतना द्वेष क्यों वह भी एक सीट को लेकर...! बहुत सोचा...तब जाकर महसूस हुआ कि, पुरषों में यह झड़प हो ही क्यों? उन्हें कुछ पलों के आराम कि चाहत होगी, वह भी इतने मुश्किलों के बाद मिलनेवाली राहत. भला क्यों इतनी मेहनत, मुशक्कत कि जाये...जब घर जाकर पूरा का पूरा बिस्तर ही अपना है. दफ्तरों से निकलने के बाद उन्हें घर जाकर आराम ही तो फरमाना है. पर यह हरफनमौला महिलाएं तो घर लौटते ही खुद के लिए भले ही एक गिलास पानी उठाने की इच्छा हो हो...पति देव के लिए जरुर चाय बनानी पड़ती है. नहीं, मैं यहाँ पुरषों की बुराई नहीं कर रही और ही महिलायों का पक्ष ले रही हु...बस कुछ मध्यवर्गी महिलायों की स्थिति से आपको रू--रू करवाना चाहती हु.
              सुबह उजियारा होने से पहले ही अपनी नींद को त्यागकर मशीन की तरह काम में लग जाती है. सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक का इन्तेजाम बेहद ज़िम्मेदारी के साथ पूरी करती है. रसोई से लेकर दफ्तर तक अपना लोहा मनवा चुकी महिलाएं पुरषों के बराबर के कामों के साथ-साथ घर को भी बेहतरीन तरीकों से संभालती है. फिर क्या हर्ज़ है अगर वो चंद मिनटों के लिए अपने पैरों को आराम देने के लिए सीट पर रखकर बैठ जाये. इस भागती-दौड़ती बम्बईया जीवन में रेलगाड़ी में कुशलतापूर्वक सब्जियां चुने, अपने प्रियजनों के लिए स्वेटर बुने.
इन सब का मतलब यह नहीं की यह करुणा की मूर्ति मानी जानेवाली स्त्रियाँ स्वार्थी बन गयी है. उस दिन जब ट्रेन में १३ से १४ वर्ष का एक लड़का अपनी माँ के साथ लेडिस डिब्बे में बैठा था. शायद वह दिमाग से कुछ बीमार था. अगले स्टेशन पर चड़ी महिला ने लड़के को सीट पर बैठा देखते झट से बोली," तुम क्या जेन्स में नहीं चढ़ सकते थे? इतने बड़े हो गए हो...चलो थोडा हटो बैठने दो..." उस लड़के की माँ ने डर कर तुरंत उसे उठने का इशारा किया और उसका हाथ पकड़कर दुबककर अपने पास बैठने के लिए कहा पर वह बैठा...और उठ कर दूर खड़ा हुआ. गाड़ी चल रही थी इसलिए उतर पाना भी संभव था. कुछ  - मिनटों बाद वही सीट पर बैठी महिला ने थोडा खिसकर लड़के को आवाज़ दी और कहा,"यहाँ आकर बैठ जाओ...मैं थोड़े देर में उतर जाउंगी तब आराम से बैठ जाना." उस वक़्त स्त्री का अनोखा रूप मेरे सामने था...जहां चाहते हुए भी ममता स्वार्थ पर हावी हो गयी थी.
अपनी सामर्थ्यशीलता पग-पग में साबित करनेवाली कुशल महिलाएं सीट के लिए इतना परेशान हो तो उनकी यात्रा के वक़्त कुछ पलों को मिलनेवाला आराम उन्हें कैसे मिल पायेगा. आखिर घर जाकर आपनी सारी थकान को भुलाकर उन्हें ही अपने बच्चों को स्नेह से गले लगाना है, अपने परिवार के लिए भोजन का प्रबंध करना है
ऐसी निस्वार्थ, ममतामय, सामर्थ्यशील महिलायों को मेरा सलाम...!     
                                                                                   -  सोनम प्र. गुप्ता