Monday, December 31, 2012

क्यों न आते तुम हर उस शाम


तुम साथ क्यों नहीं थे,
उस शाम क्यों नहीं थे,
उन दरिंदों ने,
मेरी आत्मा को,
निर्ममता से मार दिया,
तड़पी मैं,
चीखी मैं,
चिल्लाते हुए,
बचने की कोशिश भी की,
लेकिन हार ही गयी,
तुम्हारी बिटियां

नोच लिया,
हवस के दरिंदो ने,
गिद्ध की तरह,
तुम्हारी लाडो को,
लडती रही,
अस्पताल के चारपाई पर

हैवानों की तरह,
मेरे अंग-अंग के,
चिथड़े-चिथड़े कर दिए,
न समझ सके मुझे इंसान,
मांस का टुकड़ा समझ कर,
बोटी-बोटी छलनी कर दी,
अब क्या बचा था मुझमें,
फिर भी मैं जीना चाहती थी,
उठकर उनसे लड़ना चाहती थी,
क्या गलती थी मेरी?
क्यों रौंद दिए मेरे नन्हे-नन्हे सपनों को?
क्या नहीं जन्मे वह किसी स्त्री के गर्भ से?
क्या इसी तरह नोचा था
अपनी मां और बहन को?
यह सवाल पूछना मैं चाहती थी

जीत गए वो आज,
फिर एक बार,
मेरी सांसों के रुकने से,
तुम आये इस शाम,
लेकर हाथों में ज्योति,
क्यों न आते तुम हर उस शाम,
जब मेरे जैसी,
लाखो दामिनी,
चीखती, चिल्लाती और रोती  ... 
                    -सोनम प्र. गुप्ता 


Thursday, December 27, 2012

"अभी तो मैं जवान हूं!"



              हाँ, यही नारा होना चाहिए हमारे समाज के सभी भूतपूर्व युवाओं का। 45 वर्षीय अपनी माँ से जब मैंने कंप्यूटर सीखने की बात कही तो वह कहने लगी मेरी उम्र नहीं है यह सब सीखने की। जब भी हम अपने किसी बड़े को कुछ नया बताना चाहते है तब यह जवाब हमे अक्सर सुनने को मिलता है। हमारे समाज में 30 वर्ष के बाद हर महिला और पुरुष अपने आप को बुजुर्ग की केटेगरी की ओर धकेलने लगता है। हमारे शरीर के बूढ़े होने से पहले ही हमारी सोच को, हमारी जिजीविषा को हम बूढ़ा बना देते है। हम अक्सर ईश्वर की पूजा और आराधना में ही अपने बुढ़ापे को बिताना चाहते है। काम न होने पर मंत्रो के जाप में ही समय गुजारना शायद ईश्वर को भी नहीं भाता होगा। उन्होंने हमे यह जीवन जीने के लिए, निरंतर कुछ नया करने के लिए दिया है। जीवन बेहद छोटा होता है। उसमें भी जीवन के हर पड़ाव बचपन, यौवन, परिपक्कव (मैं बुढ़ापे को यहाँ बुढ़ापा न लिखकर जीवन का सबसे परिपक्व पढाव कहना चाहूंगी) सभी का अपना एक महत्त्व होता है। 2012 में 100 साल की जीवन की लम्बी पारी पूरी करनेवाली अभिनेत्री ज़ोहरा सहगल ने अपने 100वे जन्मदिन पर कहा,"मैं अब भी झूमकर नाचना चाहती हूं। क्योंकि अब भी मैं जवान हूं।" सहगल 50 की उम्र पार करने के बाद भी हर रोज अपना वजन जांचती और जिस दिन भी उन्हें अपने वजन में थोड़ी-सी भी बढ़त दिखती। वह तुरंत अपने खाने पर सही नियंत्रण रखना शुरू कर देती। बहु, पोतोवाली इस महिला को अपने आप को लगातार सुन्दर और सामयिक बनाते देख मुझे अपने युवा होने पर प्रश्न चिन्ह लगता दिखाई देता है। हमारे समाज में बच्चों की शादी होने के बाद, नाती-पोते का मुंह देखने की अभिलाषा रखी जाती है। जब वह भी पूरी हो जाये तो बस अब तो सिर्फ तीर्थ यात्रा करना ही जीवन का अंतिम धेय  बन जाता है। कुछ नया करने, सीखने की बात कहना तो अंधों की नगरी में आइना बेचने जैसा होता है। अगर गलती से कभी किसी खुले दिल के भूतपूर्व युवा ने सोचने की हिम्मत की तो उनके वंश के कर्णधार लोकलज्जा की लम्बी-लम्बी बाते कर उन्हें मंदिर भेज देते है। 
           कई माँ-बाप किसी कारणवश अपनी पढाई पूरी नहीं कर पाते। ऐसे में अगर उनके भीतर अब भी वह इच्छा शक्ति है, तो बेझिझक उन्हें स्कूल, कॉलेज में जाकर अपना नाम दर्ज करवाना चाहिए। मेरे पोस्ट ग्रैजुएशन की क्लास में एक 51 वर्ष के चाचाजी पत्रकारिता की शिक्षा लेने आते है। उनसे पूछने पर कि इस उम्र में आप पत्रकारिता जैसी 24*7वाले कठिन क्षेत्र में क्यों आना चाहते है। उन्होंने कहा,"हमेशा से लिखने का शौक था। पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते मौका नहीं मिला। लेकिन आज जब अपनी अधिकतम जिम्मेदारियां पूरी कर चूका हूं , तो यह समय सिर्फ मेरा है।" आपने अपने बच्चों की इच्छाएं, शौक हमेशा पूरा करने की कोशिश में रहते है। तो ऐसे में अपनी जिंदगी के साथ समझौता क्यों? कुछ भूतपूर्व युवा ऐसे मुद्दों पर कहते है, कि  इस उम्र में पढ़-लिख कर, कुछ नया सीख कर हासिल क्या होगा? यह तो केवल फिजूल खर्ची है। तो उनके सवालों का जवाब मैं अपने जीवन की एक सच्ची घटना से देना चाहूंगी। मैं कुछ वर्ष पहले एक आंटीजी से मिली थी। वह 45 वर्ष की उम्र में अपने शौक के चलते कंप्यूटर सीख रही थी। कोर्स ख़त्म होने के कुछ महीनो बाद उनके पति की तबियत बिगड़ने-से उनकी आर्थिक परिस्थिति डगमगा गयी। बच्चों ने अपने बच्चों और परिवार की स्तिथि का हवाला देकर पहले ही अपने हाथ खड़े कर दिए थे। ऐसे में उन्होंने अपने कंप्यूटर के ज्ञान को समय के साथ थोडा और विकसित किया और उस समय एक क्लासेस में कंप्यूटर सिखाने का काम शुरू किया। आज 2 सालों  के भीतर न केवल उनके घर की आर्थिक स्थिति में सुधार आया बल्कि उन्होंने अपना एक छोटा-सा क्लासेस भी खोल लिया है। इस लिए कभी भी कोई भी ज्ञान व्यर्थ नहीं जाता। हो सकता है कि वह आपको धन अर्जित करने में सहायता न करे लेकिन जीवन में किसी न किसी रूप में वह आपका सहायक जरुर बनेगा।  
         कुछ भी सीखने की कोई उम्र नहीं होती। जब मौका मिले तब कुछ नया करते रहना चाहिए। बचपन से मन में कुछ न कुछ ऐसी इच्छा होती है, ऐसी अभिलाषाएं और शौक होते है जिन्हें पूरा करने का समय नहीं मिलता या मौका नहीं मिल पाता। ऐसे में बढती उम्र में भी अपने आप को जवां रखने का सबसे अच्छा तरीका है। अपने शौक को, अपने अधूरे सपनो को पूरा करने की कोशिश करना। अपनी जिघयासों को हमे कभी मरने नहीं देना चाहिए। अपने नाती-पोतो को पारिवारिक संस्कार देने के साथ-साथ उनसे आज-कल के दौर की नयी बातें सीखने  में हर्ज़ ही क्या है। हर समय अपने आप को अपडेट करते रहना आपके जीवन में जोश और उत्साह भरता है। आप अपने युवा पीढ़ी के लिए न केवल सम्माननीय बन कर रह जाते है। बल्कि साथ ही वे आपको अपना दोस्त बनाने से भी नहीं झिझकते। देर अब भी नहीं हुई, उठिए और अपने पुराने दबे सपनो और ख्वाइशो को बंद पिटारे से खोज निकालिए। खुल कर अपने सपनो को बेझिझक जीने की हिम्मत जुटाइए। कभी सलवार कमीज पहनने  की अभिलाषा रही हो, तो अभी तुरंत जाकर दर्जी को अपना नाप देकर आईये। रंग-बिरंगे शर्ट पहनकर, अपने जन्मदिन पर एक दमदार पार्टी कीजिये। उन सफ़ेद बालों में अगर चेहरे की चमक छिप  गयी हो तो अब भी के अभी बाजार जा कर रंग डालिए अपने आप को नयी उमंगो से। शादी के बाद हनीमून पर जाने की इच्छा थी। लेकिन घर का बजट इजाजत नहीं दे रहा था। तो अब अपनी जमा-पूंजी को नाती-पोतो को सौपने की बजाय अपने लिए कुल्लू-मनाली की टिकिट बुक करवाइए। डांस सीखने की इच्छा बचपन से थी लेकिन मौका ही नहीं मिला। तो अब कहा देर हुई है। हो सकता है कमर उतनी न लचके, लेकिन जितने भी ठुमके लगेंगे वह आपके आपके भीतर के बच्चे को उतना ही जागृत कर देंगे। यह समय आपका है। भूतपूर्व युवा से आगे निकल कर वर्तमान युग के युवा को  पछाड़ दीजिए। जबतक आखिरी सास है तब तक इसे पूरे जोश और ख़ुशी से जीने का पूरा हक़ आपको है। और अगर कोई आपसे यह कहे की बुढ़ापे में इसे जवानी चड़ी है तो पलट कर जरुर कहना," बूढ़ा होगा तेरा बाप!" 
अगर आपने अपने भीतर के बच्चे को अब भी जीवंत रखा है, तो उसकी एक झलक हमारे साथ लिख कर या अपनी तस्वीरों के सहारे जरुर बाटें .
आप हमे मेल कर सकते है, sonamg.91@gmail.com या आप उपर दिए पते पर भी पोस्ट कर सकते है। 
                                                                                                                                   -सोनम प्र. गुप्ता

                                                                                                                                          

Tuesday, December 18, 2012

बढती कीमतों से हताश आम जनता


      मुंबई में पेट्रोल की कीमत महीने-दर-महीने बढती जा रही है। अप्रैल से सितम्बर के बीच ही पेट्रोल की कीमते 75 के पार जा चुकी है। पेट्रोल के साथ डिजेल और सीएनजी की कीमतों में भी बढ़ोतरी हुई। महंगाई का असर पिछले 3 सालों से केवल पेट्रोल ही नहीं बल्कि अन्य  कई महत्त्वपूर्ण वस्तुओं पर पढ़ा है। खाद्यानो की कीमतों में भी पिछले 6 महीनो में काफी उछाल आया है। इस पर भी सोने पर सुहागा हालहिं में सरकार  ने एलपीजी सिलिंडर की कीमतों को बढा दिया साथ ही साल में 6 से अधिक सिलिंडर उपयोग करने पर अधिक कीमत अदा करने पर रोष का माहौल रहा। अगर साल में 6 से अधिक सिलिंडर की आपको जरुरत पड़ी तो बाजार में उसकी कीमत 399 से बढ़कर 746 हो जाएगी। देश भर में सरकार के इस फैसले के खिलाफ महिलायों ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किये। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महंगाई पर बात करते वक़्त हालहिं में कहा,"पैसे पेड़ पर नहीं उगते।" देश के प्रधानमंत्री के ऐसे बयान  से देश की जनता को बेहद निराशा हुई। साथ ही उनका गुस्सा सरकार की ओर  बढ़ गया।  नवी मुंबई के ऐरोली की श्रीमती अनीता भुर्के वस्तुओं की बढती कीमतों पर कहती है,"रोज एक एक जरुरी सामान की कीमत बढ रही है। अब घर का बजट तैयार करने में बहुत समस्या होती है।" वाशी की 46 वर्षीय सौम्या राजदान पेशे से प्रोफेसर है। वे कहती है,"एलपीजी की बढ़ी कीमतों से केवल रसोईघर का बजट डगमगा गया है। बल्कि साथ ही गाड़ी का खर्च, यातायात के व्यय में भी बहुत बढ़ोतरी हुई है। मैं और मेरे पति दोनों ही कमाते है। फिर भी बढती कीमतों ने घर चलाना मुश्किल बना दिया है।" दादर की 36 वर्षीय  गृहणी नंदिता गुप्ता कहती है,"अब तो मैं गैस का इस्तेमाल बहुत सोच-समझ कर करती हूँ। साथ ही मैंने तो इलेक्ट्रॉनिक चूल्हा ले लिया है।" सभी अपने अपने तरीके से इस बढ़ी कीमतों से निबटने की कोशिश में लगे हुए है। मध्यवर्गीय परिवार की 38 वर्षीय रहीना शौकत महंगाई का सारा दोष सरकार को देते हुए कहती है,"बड़े लोगो को गैस, सिलेंडर के भाव बढ़ने से क्या फर्क पड़ेगा। कमर तो हमारी टूट रही है। अब खीर-पकवान तो त्योहारों पर ही बनाना होगा। क्योंकि वैसे तो 2 वक़्त का खाना ही नसीब हो जाये बड़ी बात है।" पेट्रोल और डिजेल की मूल्यों में वृद्धि से 4 पहिया गाड़ीवाले 2 पहिये पर गए है। इस पर एक बड़े बैंक में काम कर रहे प्रशांत डाके का कहना है," पहले मैं रोज ऑफिस अपनी कार से आता-जाता था। तक़रीबन 200-300 रूपए पुरे दिन में मेरी गाड़ी का खर्चा हो जाता। लेकिन अब 500 रुपये से भी ज्यादा व्यय हो जाता है। इसलिए मैंने अपनी बाइक निकाल ली है। देखते है कब तक यह बजट में बैठती है।" वही रिक्शा के किराये में बढ़ी कीमतों ने मध्वार्गीय जनता की कमर तोड़ दी है। 68 वर्षीय सुशील मोंडल अपनी बची-खुची पेंसन को आज-कल की कीमतों के सामने घुटने टेकते देख कहते है,"सोचा था, बुढ़ापे में बच्चो के सामने हाथ नहीं फैलना पड़ेगा। रिटायरमेंट के बाद के लिए इतना जमा कर रखा था। लेकिन मेरी आधी जमा राशी तो शुरू के कुछ ही सालों में ख़त्म हो गयी। कहा मजे से अपना बुढ़ापा गुजरने के सपने लिए बैठा था और कहा अब जरूरतों को ही पूरा कर लू। वही बड़ी बात लगती है।" पिछले 3 सालों में रोजमर्रा की वस्तुओं में कीमतों की बढ़ोतरी को देखते हुए 28 वर्षीय मेहुल सावला कहते है,"अब मैंने अपने घर के बजट को लेकर कोई निश्चित सीमा तय करना ही छोड़ दिया है। सरकार  का कोई भरोसा नहीं। कब किस चीज़ की कीमत बढ़ जाये, कब आपका पूरा प्लान चौपट हो जाये। आप इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते।" देश की जनता जिस महंगाई की मार से त्राहि-त्राहि कर रही है, उस पर सरकार इतनी लाचार, निष्क्रिय और दिशाहीन क्यों दिखाई दे रही है? प्रधान मंत्री, वित्तमंत्री, कृषि एवं खाद्य मंत्री और सरकार में बैठे विशेषज्ञ बार-बार दिलासा देते रहे कि यह कुछ महीनों में काबू में आ जाएगी। लेकिन ये सारी दिलासाएं झूठी निकली। जिस सरकार का प्रधानमंत्री अर्थशास्त्री हो, उस सरकार से ऐसी अर्थ व्यवस्था निराशाजनक है।

-सोनम गुप्ता 

Thursday, October 11, 2012

बारी है उन्हें बहिस्कृत करने की



           पिछली दफा यहीं किसी पन्ने पर मैंने दहेज़ प्रथा के बारें में कुछ अपने अनुभवों को और अपने विचारो को व्यक्त किया था. दहेज़ के खिलाफ लिखने के बावजूद उम्मीद से अधिक प्रातक्रिया मिली. कई मेसेज और फोन आये, बधाइयाँ मिली, तो किसी ने इस मुहिम को जारी रखने की सलाह दी. इनसब को धन्यवाद मेरा मनोबल बढ़ाने की कोशिश करने के लिए. लेकिन माफ़ कीजियेगा, सच कहू तो मुझे तनिक भी  वह प्रेरणा, वह उम्मीद आप सभी की प्रतिक्रियाओं में नहीं दिखी. जिसकी आस में मैंने इसपर लिखने का मन बनाया था. अगर मुझे बधाई देने की जगह किसी पुरुष ने एक बार भी सच्चे मन से यह कहा होता कि "मैं अपनी या अपने भाई, बेटे को नहीं बेचूंगा...यह मेरा वादा है. या किसी स्त्री ने कहा होता मैं यह सौदेबाजी नहीं करुँगी." सच कहती हु, उसी पल मेरा वह लेख लिखने का मकसद पूरा हो गया होता. गौरतलब है, कि क्या अब भी किसी का मन बेचैन नहीं हुआ. क्या अब भी किसी का जमीन, किसी की आत्मा नहीं जगी? मेरे सभी अग्रहरि मित्र अब भी अपने आप को बेचने के लिए शायद तैयार है. हो भी क्यों न पैसे का मोह जग में सबसे बड़ा...वो कहते है न " ना बाप बड़ा न भैया द होल थिंग इज दैट सबसे बड़ा रुपैया."
     मित्रो यह समय अब सिर्फ सोचने का विचार करने का नहीं रहा. अगली पीढ़ी से प्रथा बंद करने की कोशिश करेंगे, यह जवाब तो जैसे अंधे को पल भर में दुनिया देख सकने की उम्मीद देने जैसा है. न जाने कब कोई आँख दान करेगा और क्या पता इतने पर भी उसका ऑपरेशन सही होगा या नहीं. अबतक मैं नैतिकता में बंधी, सामाजिकता के लिहाज में डूबी बातें कर रही थी. लेकिन अब उसका समय भी निकल गया. जब इतने पर भी हमारा ईमान नहीं जागा तो अब अपने शब्दों को तीक्ष बनाने में मुझे जरा भी संकोच नहीं होगा. अब हमे ऐसे लालची और नैतिकताहीन दहेज़ प्रेमियों पर पूरे जोश के साथ धावा बोलना होगा. जो हमे बहुत पहले ही करना चाहिए था. क्योंकि अगर हम सही है तो फिर चाहे लाख दुनिया हमारे विपरीत खड़ी हो. प्रकृति का अटल नियम है हार उन्ही नकारात्मक विचारों की ही होनी है. अभी हालहिं में नवी मुंबई में एक कार्यक्रम हुआ. जहाँ संस्था के एक सदस्य के साथ इसी मुद्दे पर चर्चा करते वक़्त उन्होंने कहा कि "दहेज़ लेनेवाले लोगों को समाज के कार्यक्रम में बकायदा बुलाकर उनपर मंच पर व्यंग कसते हुए हसीभरा  सम्मान करना चाहिए...उनके इस शर्मनाक काम के लिए सभी के सामने उनका पर्दाफाश करना चाहिए. ताकि लोगो के सही चेहरे सबके सामने आ सके." इन महोदय की बात मुझे बहुत जची और मैंने कहा जिस दिन ऐसा हुआ ना सच मानिये आधी जंग हम जीत लेंगे. मुझे पूरी उम्मीद है कि हमारे सभी संस्थाओं के पदाधिकारी इस रोचक और मजेदार सुझाव पर जरुर गौर करेंगे, यदि उनका दामन स्वच्छ होगा व् वे सचमुच इस प्रथा को ख़त्म करना चाहते होंगे. वर्ना उनके लिए यह तो एक पन्ना है जिसे पलटकर वह अपनी वाहवाही के लिए ऐसे समाज की रीड को तोड़ रहे मुद्दों को नजरंदाज करते बढेंगे.
          दूसरी तरकीब यह होगी कि हमे ऐसे महान दहेज़प्रेमी बंधुओं के विवाह में समिल्लित ही नहीं होना चाहिए. जब कभी कोई  समाज में छोटी-सी भी गलती कर दे, एक भी नियम का उल्लंघन कर दे तो दुसरे पल ही हमारे समाज के कर्ता-धर्ता उनका हुक्का-पानी बंद करवा देते है. फिर क्यों ना ऐसे रुढ़िवादी और स्त्रीशोषी विचारोंवाले लोगों को बहिष्कृत किया जाये. मुझे मालूम है यह पढ़कर कई लोगों के कानो में जूं रेंग गया होगा. असंभव-सी कोई बात मानो पढ़ ली हो. दहेज़प्रेमी तो मुझे मन-ही-मन सौ बददुआयें भी दे चुके होंगे. लेकिन फिर भी हमे एकजुट हो ऐसे लोगो के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी. अब केवल मन से दहेज़ प्रथा के खिलाफ खड़े होने से काम नहीं बननेवाला. अगर आप ऐसा करने से कतराते है तो याद रखे कि कोयले की दलाली में भले ही कितने ही रंग के साबुन लगा कर हाथ धुले कर आये हो हाथ काले हो ही जाते  है. यदि आप चाहते है कि कल आपकी बेटी, भतीजी, नाती-पोती  के लिए लड़का ना खरीदना पड़े तो पूरे उत्साह और दृढ निश्चय के साथ इसके खिलाफ आगे आना होगा.
आज आपका परिवार नहीं जायेगा तो शायद उन्हें इतना दुःख ना हो. लेकिन कल आपसे प्रेरणा लेकर कोई और परिवार नहीं जायेगा तो दो परिवारों की कमी कभी तो खलेगी. आप के अकेले बहिष्कृत करने की हिम्मत ही काफी है ऐसे गलीच कर्मोवाले लोगो के लिए. साथ ही कम-से-कम मन को यह तो संतुष्टि होगी की कम-से कम मैं किसी की बेटी के सौदे में शामिल नहीं हुआ. ईमानदार और सच्चे व्यक्ति की एक नजर ही काफी होती है, लालची और दगाबाजों को उनकी औकात दिखाने के लिए.
      खैर, दुःख तो तब ज्यादा होता है जब जिन लोगो के स्वाभिमान के लिए, हक़ के लिए यह लड़ाई है वही इसके संग नहीं. उन सभी सखियों से यही गुजारिश है कि पैसो से ख़रीदे गए रिश्तो से बेहतर है अकेले जीना. ऐसे रिश्तो को ठोकर मार और ऐसे लडको को सरे आम बेइज्जत करना चाहिए. जब तक हम खुद अपन अधिकारों के प्रति सजग नहीं रहेंगे तब तक लाख कोशिशों के बावजूद आपकी सहायता कोई नहीं कर सकता. जबतक पंछी उड़ना ही ना चाहे, कोशिश ही नहीं करेगा तो कितने ही सुन्दर पंख उसपर सजा दे, कितने ही उड़ने के तरीके उसे सीखा दे वह अपने घोसले से बाहर की दुनियां कभी नहीं देख पायेगा.
           मित्रो अगर सच में आपको लेख पसंद आया हो तो मुझे बधाई देने के बजाय अगर आप दहेज़ ना लेने और देने का प्रण लेंगे तो सही मानियें वह पल मेरे लिए सबसे सफलतम और इस समाज को बेहतर बनाने की दिशा में उज्जवल कदम होगा. आज भले ही मैं अकेली हु लेकिन मुझे विश्वास है कि एक दिन ऐसा जरुर होगा जब उस दहेज़ लेनेवाले बिकाऊ के विवाह में केवल उसकी दुल्हन और पंडित होगा.
आप अपने विचारो से मुझे sonamg.91@gmail.com पर अवगत करा सकते है. आपकी प्रतिक्रिया से कही अधिक आपके प्रण का इन्तेजार रहेगा. 

                                                                                                                                                                                     -सोनम गुप्ता

Tuesday, October 2, 2012

तेरी क्या प्रॉब्लम है

तेरी क्या प्रॉब्लम है,
हाँ, यही कहा उन्होंने,
तेरी क्या प्रॉब्लम है,
जब वह सिगरेट के धुए में,
धूमिल होना चाहता है,
तो क्यों उसे टोक कर,
उसकी प्रॉब्लम बन जाती हो,
नहीं चाहता वह,
तुम्हारी तरह खुल कर हसना,
तो क्यों उसे गुदगुदाती हो,
हर सवाल का उत्तर मांग कर,
क्यों उसको सताती हो,
नहीं चाहता वह निंद्रा से जगना,
कीचड़ में महकना,
तो फिर क्यों अपने शब्दों को,
व्यर्थ बहाती हो,
कह दिया ना आज उसने भी,
तेरी क्या प्रॉब्लम है,
क्यों पीछे पड़ जाती हो...

Saturday, September 29, 2012

आज वे बहिस्कृत किये देते है...

आज पुरष्कृत हूं,
कल शायद बहिस्कृत रहूंगी,
आज वो सम्मान दिए देते है,
कहो तो चरणों में पुष्माला धर देंगे,
कल जब इनकी सोच के विपरीत चलूंगी,
तो वही कल फासी चढवा देंगे,
उस प्यार और दुलार को,
सीने से मिटा देंगे,
जो उनकी मनसा है,
वही शब्द कहलवाना वे चाहते है,
मेरी सोच, मेरी समझ को निर्जीव बनाना चाहते है,
सही कुछ न कहने देंगे,
मंच पर बुलाकर,
अपनी ही तारीफे सुनेंगे,
लेकिन जब मेरे अन्दर का लेखक,
उनकी कही को टालेगा,
अपनी सोच के घोड़े दौड़ाएगा,
उसी पल वे मंच से मुझे धकेल देंगे,
मेरी लिखित पुस्तकों को जला,
समाजविरोधी घोषित कर देंगे,
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नयी बहस छेड़,
प्रश्न चिन्ह लगा देंगे,
कर सकते है वह यह सब,
यह मंच उन्ही के पैसो का है,
यह श्रोता भी ख़रीदे है उन्होंने,
खरीदना चाहते थे वे मुझे भी,
जब इंकार किया मैंने,
मेरा नाम तक वह बिसर गए,
लेकर आये थे होंडा सिटी में,
लौटना पड़ा सरकारी बस में,
पहेल तो सम्मान दिया,
आज वे बहिस्कृत किये देते है...

Saturday, September 22, 2012

सरल, सृजन, सचेत: अटल बिहारी वाजपेयी


                                                                                             
श्री अटल बिहारी वाजपेयी
"एक हाथ में सृजन,                                                                          
        दूसरे में हम प्रलय लिए चलते हैं,                                                  
सभी कीर्ति ज्वाला में जलते,
        आँखों में वैभव के सपने,
पग में तूफानों की गति हो,
        राष्ट्रभक्ति का ज्वर रुकता,
आये जिस-जिस की हिम्मत हो."
                 उपर्युक्त लिखी यह पंक्तियां दुश्मनों को ललकारने के साथ-साथ सृजन और प्रलय से एक साथ  खेलनेवाले राष्ट्रप्रेमी अटल बिहारी वाजपेयी की निर्भीक भावनाएं व्यक्त करती है.
        बचपन में टीवी पर जब भी मैं अटलजी का कछुवें की गति से चलता भाषण सुनती तो हमेशा ऊब  जाती और सोचती के यह बढे ढीले किस्म के प्रधानमंत्री है. शायद इनको कोई ज्ञान नहीं इसलिए इतना सोच-सोच कर बोलते है. मेरा बालमन उस वक़्त यह नहीं समझ पाया कि यह धीमी गति देश पर अपनी अमिट छाप छोड़नेवाले राजनेता के सय्यम, विवेक और अनुभव का फल है.  

शिक्षा के मार्ग पर:
               25 दिसंबर 1924, ग्वालियर की गलियों में पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी के घर जन्में अटल बिहारी वाजपेयी एक सफल राजनीतिज्ञ के साथ-साथ कवि भी रहे. अटल जी की बी०ए० की शिक्षा ग्वालियर के लक्ष्मीबाई कालेज में हुई. उनका परिवार संघ के प्रति निष्टावान था. इसलिए छात्र जीवन से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और तभी से राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेते रहे. कानपुर के डी०ए०वी० कालेज से राजनीति शास्त्र में उन्होंने एम०ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की. उसके बाद उन्होंने अपने पिताजी के साथ-साथ कानपूर में ही एल०एल०बी० की पढ़ाई भी प्रारम्भ की. पिता और पुत्र का एक ही कक्षा में एकसाथ अध्ययन करना लोगों के लिए अजूबे की बात बन गयी थी. इस जोड़े की कहनियाँ कई वर्षो तक डी०ए०वी० कालेज में प्रचलित रही. साथ ही लोग इस जोड़ी को देखने उनके छात्रावास तक पहुंच जातेलेकिन किन्ही कारणों से उन्होंने पढाई बगैर पूरी किये संघ कार्य में बेहद निष्ठा से जुट गए. एक विद्यालय में छात्रों और शिक्षको को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था,"विद्यालय एक पावन मंदिर होता है. एक अनुष्ठान का स्थान होता है, वह केवल सटिफिकेट बांटने का कारखाना नहीं होता." बिडंबना है कि आज-कल के संस्थानों के लिए तो शिक्षा बिकाऊ बन गयी है. शिक्षको के प्रति उनमें अटूट श्रद्धा रही हैअध्यापक को शिक्षा का धुरी माननेवाले अटलजी अध्यापन की दुनियां में अपना जीवन बिताना चाहते थे. लेकिन डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान ने उन्हें झकझोर दिया तथा राष्ट्रनिर्माण की दिशा में बढ़ने के लिए व्याकुल कर दिया.
राजनीति में कदम :
                1955 में जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में लखनऊ की संसदीय सीट के लिए चुनाव लड़े लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें हार हासिल हुई. "हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ." यह पंक्तियाँ लिखनेवाला कवि निराश होकर हार कैसे मानता. दो साल बाद ही दूसरे आमचुनाव में बलरामपुर से जीत कर वे संसद पहुंचे. तब से वे राजनीति का दामन थाम राष्ट्र्चिन्तन  में डूब गए. वह भारतीय जनसंघ की स्थापना करनेवालों में से एक हैं और सन् 1968 से 1973 तक वह उसके अध्यक्ष भी रह चुके हैंमोरारजी देसाई की सरकार में सन् 1977 से 1979 तक वे विदेश मंत्री रहे और विदेश निति के नए आयाम तलाशने में जुट गएआजीवन अविवाहित रहने का प्रण लिए अटलजी को सन 1996 में 13 दिन के प्रधानमंत्रित्व के बाद बहुमत के आभाव में इस्तीफा देना पड़ा1980 में जनता पार्टी से असंतुष्ट होकर उन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की. "भारत को लेकर मेरी एक दृष्टि है- ऐसा भारत जो भूख, भय, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो।" देश के प्रति ऐसी दृष्टि रखनेवाले अटलजी ने सन 1998 से 2004 तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में देश की बागडोर संभाली. अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने नई टेलीकॉम नीति तथा कोंकण रेलवे की शुरुआत की. साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा समिति, आर्थिक सलाह समिति, व्यापार एवं उद्योग समिति भी गठित कीं. इसके अलावा आवास निर्माण को प्रोत्साहन देने के लिए अर्बन सीलिंग एक्ट समाप्त किया तथा ग्रामीण रोजगार सृजन एवं विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों के लिये बीमा योजना शुरू कीप्रधानमंत्री अटलजी ने पोखरण में अणु-परीक्षण करके संसार को भारत की शक्ति का एहसास करा दिया.
राजनीति और काव्य में संतुलन:
                विरासत में मिली काव्य के गुण को उन्होंने राजनीति के कारण दबने नहीं दिया. जब भी उन्हें समय मिलता वे तुकबंदी करने बैठ जाते. वे अपनी कविताओं की दुनियां में अटल होकरकैदी कवि राय’ कहलाना ज्यादा पसंद करते थेइसी सृजनता के चलते उन्होने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्मपांचजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी कियाअटल जी की कलम में कुछ ऐसा जादू रहा कि पत्र की प्रति हाथ में आते ही लोग पहले संपादकीय पढ़ते थे, बाद में समाचार आदि. ऐसा कोई ही देश होगा जहां अटलजी के कदम ना पड़े होउन्होंने एक यायावर की तरह देश व् विश्व के कोने-कोने का भ्रमण किया है. इतने सारे व्यापक अनुभवों की संपदा ने उनके सोच की दुनियां को संवारा है और उसी सोच को उन्होंने अपनी कविताओं में उतारा है. कवि और राजनितिक कार्यकर्त्ता के बीच मेल बिठाने का निरंतर प्रयास करनेवाले अटलजी कहते है,"राजनीति ने मेरी काव्य रसधारा को अवरुद्ध किया है." उनके अनुसार उनके भीतर के कवि ने उन्हें राजनीति के लिए एक नयी दृष्टि प्रदान की है. उनका हिंदी के प्रति बेहद लगाव था. विदेश मंत्री के रूप में 1977 को संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से उन्होंने हिंदी में भाषण देकर हिंदी को गौरान्वित किया. व्यर्थ के अभिप्रायों का वे बेहद विवेक के साथ उत्तर देते थे. फिर चाहे वह कीचड़ की छीटे राजनेता के लिए या कैदी कवि राय की रचनाओं पर पड़ी होवे बेहद सरलता सहजता से विनोदी उत्तर देकर मामले को हल्का कर देते थे. कन्हैयालाल नंदन ने अटलजी की कविताओं के सन्दर्भ में कहा है," अटलजी की कवितायेँ उन अनुभवों और स्मृतियों के विशाल फलक पर खुदे हुए उनके अपने समय के स्तिथिजन्य शिलालेख है."
        मृत्यों से दो-दो हाथ करने का सामर्थ्य रखनेवाले अटलजी का कभी कोई व्यक्तिगत विरोधाभास नहीं दिखा. सन 1992 को उन्हें पद्‍मविभूषण से अलंकृत किया गया. 1994 को उनके सेवाभावी, स्वार्थत्यागी तथा समर्पणशील सार्वजनिक जीवन के लिए 'लोकमान्य तिलक सम्मान' से सम्मानित किया. 17 अगस्त, 1994 को संसद ने उन्हें सर्वसम्मति से 'सर्वश्रेष्ठ सांसद' का सम्मान दिया गया. हालहिं में उन्हें हिस्टरी इंडिया चैनल द्वारा महान भारतीय (द ग्रेट इंडियन) के शीर्ष 10 महारतियों के बीच शामिल किया गया था.  अपने देश के प्रति निष्टावान व् सिद्ध हिंदी कवि रहे बिहारीजी फ़िलहाल राजनीति से संन्यास ले चुके है. विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के निर्माण में उनका योगदान इतिहास के सुनहरे पन्नो पर लिखा जायेगा. आज देश में जहां भ्रष्टाचार, घोटालों, महंगाई का बोल-बाला है वहां अटलजी जैसे राजनेताओं की सख्त जरुरत है.