हिंदी साहित्य के आरम्भ का प्रश्न हिंदी भाषा के आरंभ से जुडा हुआ है।
इस भाषा का विकास एक जन भाषा के रूप में हुआ है। कोई भी जन भाषा अपने प्रवाह
की अक्षुणता में सदा एकरूप नहीं रह सकती। स्थान और काल के भेद से उसमें रूप भेद भी
स्वतः उत्पन्न हो जाता है। अतः भाषा के रूप-भेद को भुलाकर तात्त्विक परिवर्तन के
आधार पर ही एक भाषा के अंत और दूसरी भाषा के आरंभ का इतिहास स्वीकार करना अधिक
समीचीन प्रतीत होता है।
काल
विभाजन का नामकरण साहित्य के इतिहास की महत्त्वपूर्ण समस्याएं हैं। इनके आधार
सामान्यतः इस प्रकार माने गए है:
1. ऐतिहासिक काल-क्रम के अनुसार:
आदिकाल, मध्यकाल, संक्रांति-काल, आधुनिक काल, आदि।
2. शासक और उसके शासन-काल के अनुसार:
एलिजाबेथ-युग, विक्टोरिया-युग, मराठा-काल आदि।
3. लोकनायक और उसके प्रभाव-काल के
अनुसार: चैतन्य-काल(बांग्ला), गाँधी-युग(गुजराती) आदि।
4. साहित्य नेता और उसकी प्रभाव-परिधि
के अनुसार: रविन्द्र-युग, भारतेंदु युग, आदि।
5. राष्ट्रीय, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक
घटना या आन्दोलन के आधार पर: भक्ति काल, पुनर्जागरण काल, सुधार काल, युधोत्तर काल,
स्वातंत्र्योतर काल आदि।
6. साहित्यिक प्रवृत्ति के नाम पर:
रोमानी युग, रीतिकाल, छायावाद-युग आदि।
आचार्य शुक्ल ने जॉर्ज ग्रियर्सन और मिश्र बंधुओं से कुछ संकेत ग्रहण कर हिंदी साहित्य के इतिहास को अपनी तर्कपुष्टि व्याख्या देकर चार कालों में विभक्त कर उनका नामकरण किया।
प्रारंभिक साहित्यकारों ने साहित्य को
चार काल खंडों में विभाजित किया:
1. आदिकाल या वीरगाथा काल: संवत 1050
से 1375 तक।
2. पूर्व मध्य काल या भक्तिकाल:
संवत 1375 से 1700 तक।
3. उत्तर मध्य काल या रीतिकाल: संवत
1700 से 1900 तक।
4. आधुनिक काल या गद्य का विकास: संवत
1900 से वर्तमान तक।
आदिकाल या वीरगाथा काल
इस
समय विशेष में संवत 1050 से संवत 1375 तक का काल खंड आता है। इसके
प्रारंभिक डेढ़ सौ वर्ष तो प्राय: सामान्य रचनाओं के ही रहे, किंतु मुगलों के
आक्रमण ने रचनाओं की भावभूमि में परिवर्तन कराया। एक नयी प्रवृत्ति उभर कर आई
जिसमें चारण कवियों का बोल-बाला रहा। ये रचनाकार नीति और श्रृंगार प्रधान रचनायें
करते और अपने राजा की शौर्य गाथाओं का बखान करते। इस काल खंड को इसी कारण
"वीरगाथा काल" कहा गया।
इसका
मूल आधार रासो नामक प्रबंध परम्परा है। यहां अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी में भी
रचनाएं उपलब्ध है। इस समय में प्राचीन भाषा-परम्परा और बोलचाल की भाषा का प्रचुर
साहित्य एक साथ मौजूद है। प्राकृत सवांद की भाषा न रही और अपभ्रंश-साहित्य का
आविर्भाव हुआ। यदि धर्म विषयक रचनाओं को छोड़ दिया जाए तो सामान्य रूप
से साहित्यक रचनाकारों और रचना-संग्रहकर्ताओं के सांकेतिक उल्लेख-क्रम
में इतिहासकारों ने हेमचंद्र, सोमप्रभ सूरि, जैनाचार्य मेरुतुंग, विद्याधर और
शागर्धर का उल्लेख किया है।
मुगलों
के आक्रमण का इस काल के इतिहास में विशेष महत्त्व है। इनसे यद्यपि पश्चिम प्रान्त
के लोग अधिक प्रभावित हुए। लेकिन हिंदी साहित्य के अम्युदय का
यही काल है। इस काल में रचित वीरगाथाओं के दो रूप मिलते है। प्रबंध काव्य का
साहित्यिक रूप और वीर गीत। इस काल की प्रमुख रचनाएं हैं- 'वीसलदेव रासो',
'पृथ्वीराज रासो' और 'खुमान रासो'। इस काल के प्रमुख रचनाकार हैं- चंदबरदाई, मधुकर
कवी, भट्ट केदार, जगनिक और श्रीधर। साथ ही खुसरो और विद्यापति का रचनाकाल भी
वीरगाथा काल के अंतिम चरण में प्रारंभ माना गया है। खुसरो पश्चिम की बोली और मौखिक
परम्परा में जीवित गद्य के संवाहक हैं तो पूरब से विद्यापति एक अलग ही रचना-रंग लेकर आए थे।
5000 छंदों के विशाल
काव्य-ग्रन्थ 'खुमान रासो' में से एक छंद उदारणार्थ:
पिउ चितौड़ न
आविऊ, सावण पहिली तीज।
जोवै बात
बिरहिणी खिण-खिण अणवै खीज।।
संदेसो पिण
साहिबा, पाछो फिरिय न देह।
पंछी घाल्या
पिंज्जरे, छुटण रो संदेह।।
उपर्युक्त छंद में वीर रस के
साथ-साथ श्रृंगार की धारा भी आदि से अंत तक चली है। इसमें दोहा, सवैया, कवित्त आदि
छंद प्रयुक्त हुए हैं। इसकी भाषा राजस्थानी हिंदी है।
अधिकांश साहित्य
इतिहासकारों की मान्यता है कि 'वीरगाथा काल' का समय महाराज हम्मीर के समय तक ही
है। इसके बाद मुग़ल साम्राज्य जड़े जमाता चला गया। हिन्दू राजाओं में इसके बाद न तो
परस्पर युद्ध अधिक हुए और न वे मुगलों से ही लड़ सके। इसके बाद वीर-काव्य न लिखे गए
हों, ऐसा नहीं है। लेकिन साहित्य में सोच की धारा का प्रमुख प्रवाह ना बना रहा।
यही परिवर्तन बना साहित्य के इतिहास के दूसरे चरण का कारण।
पूर्व मध्यकाल या भक्ति काल
पूर्व मध्यकाल को
भक्ति काल भी कहते है। इसका तात्पर्य उस काल से है जिसमें मुखयत: भगवत धर्म के
प्रचार तथा प्रसार के परिणामस्वरूप भक्ति-आन्दोलन का सूत्रपात्र हुआ था और उसकी
लोकोन्मुखी प्रव्रत्ति के कारण धीरे-धीरे लोक-प्रचलित भाषाएं भक्ति-भावना की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती
गयीं और कालांतर में भक्तिविषयक विपुल साहित्य की बाढ़-सी आ गयी। इस काल में सगुण और निर्गुण भक्ति पर
आधारित दो धाराएं विद्यमान रहीं। सगुण धारा में राम भक्ति व् कृष्ण भक्ति, दो
शाखाएं मानी गयी। रामभक्ति शाखा में राम की महिमा का वर्णन करनेवाले कवियों की
गणना होती है। ये रामानंद की शिष्य परम्परा में आए। इस शाखा के प्रमुख कवियों में
गोस्वामी तुलसीदास सर्वश्रेष्ठ माने गए हैं। उन्हें हिंदी के प्राय: सभी आलोचकों
ने सर्वांगपूर्ण काव्य कुशलता संपन्न कवि के रूप में आदर दिया है। इस शाखा के अन्य
प्रमुख कवि हैं- स्वामी अग्रदास, नाभादास, प्राण चंद्र चौहान, हृदयराम आदि। तुलसी
कृत "रामचरितमानस" को इस शाखा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना ही
गया। साथ ही यह लोकप्रियता की शिखर पर भी हैं।
निर्गुण भक्ति का मूल तत्त्व है-
निर्गुण-सगुन से पूरे अनादि, अनन्त, अनाम, अजात ब्रह्म का नाम-जप। इस भक्ति पद्धति
का तृतीय मूल तत्त्व है-प्रेम के माध्यम से कर्मकांड की अनपेक्षित दुरुहताओं को
दूर करना। प्रेममयी भक्ति का अनुभव व्यक्त करते हुए कबीर ने लिखा है:
हरि रस पीया जानिए, जे कबहूं न जाय
खुमार।
मैमंता घूमत
फिरै, नाहीं तन की सार।।
कृष्ण भक्ति शाखा के दार्शनिक
आचार्य के रूप में वल्लभाचार्य प्रसिद्ध हैं। इस शाखा के प्रमुख कवि है सूरदास।
'सूरसागर' इनका सर्वप्रमुख ग्रन्थ हैं। अन्य उल्लेखनीय कवियों में कृष्णदास,
परमानंददास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर
भट्ट, मीराबाई, हरिदास, रसखान आदि की गणना होती है। निर्गुण धारा में भी सगुण धारा
की भांति दो उप धाराएं या शाखाएं हैं- पहली ज्ञानमार्गी और दूसरी प्रेममार्गी।
ज्ञानमर्गियों में कबीर सर्वप्रमुख हैं। अन्य उल्लेखनीय रचनाकारों में रैदास,
गुरुनानक, धर्मदास, सुन्दरदास, दादूदयाल, मलकूदास और अक्षर की गणना की जाती है।
सगुण भक्ति पर आधारित गोस्वामी
तुलसीदास के राम भक्ति पर लिखा एक पद उदारणार्थ:
निगम अगम,
साहब सुगम राम सांचिली चाह।
अंबु असन
अवलोकियत सुलभ सबहि जंग माह।।
उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल को रचना पद्धिति के अनुसार रीतिकाल कहा है। उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल तक आते हुए
हिंदी-काव्य पर्याप्त प्रौढ़ हो चुका था। रस-निरूपण तो प्रारंभ हो ही चुका था,
श्रृंगार व् अलंकर-ग्रंथ भी रचे जा चुके थे। इस
युग के काव्य को मुख्यत: पांच प्रवृतिसूचक वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। वे
5 वर्ग क्रमश: है- रीतिकाव्य, रीतिमुक्त काव्य, भक्तिकाव्य, नीतिकाव्य और
वीरकाव्य। इस समय विशेष के सर्वप्रमुख कवि केशवदास हुए। इन्होने काव्य के
सभी अंगों का शास्त्रीय पद्धति से अपनी रचनाओं में निरूपण किया। यह काव्य में
प्रधान स्थान अलंकार को दिया करते थे। इन्हें काव्यांग का निरूपण करनेवाली पुरानी
दशा से परिचित कराने वाला भी माना जाता है। यह दशा भामह और उद्दभट के समय विद्यमान
थी। चिंतामणि के काव्य विवेक से ऐसा निरंतर प्रवाह बना जिससे रीति ग्रंथों की
परम्परा तैयार हुई। इस काल खंड के प्रमुख कवि माने गए- बिहारी लाल, बेनी, जसवंत सिंह,
मंडन, भूषण, मतिराम, कुलपति मिश्र, नेवाज, देव, भिखारी दास, घनानंद, पद्माकर,
गिरधर ठाकुर और गिरधर दास।
रीतिकाल के सर्वश्रेठ कवि बिहारी
की भाषा प्रांजल, प्रौढ़, मधुर और सरस है। निम्नलिखित उदहारण उनके गुणों का एक
प्रमाण है:
अंग-अंग नग
जगमगति, दीप सिखा-सी देह।
दिया बुझाए
हूं रहै, बड़ो उजेरो गेह।।
रस सिंगार
मंजन किये, कंजन भंजन दैन।
अंजन रंजन
हूं बिना, खंजन गंजन नैन।।
केसरि के
सरि क्यों सके, चम्पक कितक अनूप।
गात रूप लखि
जात दुरि, जातरूप को रूप।।
उपर्युक्त दोहों से स्पस्ट है कि भाव,
अनुभूति और चेतना को बिहारी किस प्रकार मार्मिक शब्दों और प्रभावशाली बिम्बों में
प्रकट करने की क्षमता रखते हैं।
आधुनिक काल
इस काल में हिंदी साहित्य में गद्य का विकास हुआ। इसका आधार तो संवत 400 के आस-पास
ब्रज भाषा का गद्य अवश्य था। लेकिन उसका स्वरुप परिभार्जित नहीं था।
'नासिकेतोपाख्यान' सुव्यवस्थित भाषा की दृष्टि से संवत 1760 के उपरांत
प्रारंभिक उल्लेखनीय कृति मानी गयी। खड़ी बोली के सहज स्वीकार के कारण हिंदी गद्य
को एक नवीन दिशा प्राप्त हुई। अनुमान है कि इसके पार्शव में खुसरो, कबीर और गंगा
की प्रारंभिक परम्परा आधार रही होगी। इस काल विशेष में भारत में रीतिकाल का समापन
तो हो ही रहा था। भारत में शासन पर अधिपत्य जमा लेनेवाली अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष
दो तरह की भाषाएं प्रस्तुत थी। पहली सामान्य खड़ी बोली और दूसरी मुस्लिमों द्वारा
भाषा को प्रद्दत एक दरबारी रूपवाली उर्दू।
संक्षेप में, आधुनिक काल के उपविभाजन का
प्रारूप निम्नलिखित ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है:
1. पुनर्जागरण-काल (भारतेंदु काल)
2. जागरण-सुधार-काल (द्वेवेदी काल)
3. छायावाद-काल
4. छायावादोत्तर-काल:
(क) प्रगति-प्रयोग-काल
(ख) नवलेखन-काल
'रानी केतकी की कहानी' के इस
रचनाकाल में इंशाअल्लाह खां ही नहीं; लल्लू लाल, मुंशी संदासुखलाल, सदल मिश्र भी
प्रमुख रचनाकारों में थे। और तो और इसाई धर्म के प्रचारकों तक ने हिंदी को ही
माध्यम बनाया। ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राम मोहन राय भी इस काल में सक्रीय
रहे। 'उद्दंत मार्तंड' का प्रकाशन तो इससे भी पहले प्रारंभ हो चुका था। इसके
उपरांत राज लक्षमण सिंह और राजा शिवप्रसाद सिंह के काल में गद्य विकास की ओर
प्रस्थान किया। वस्तुतः इस समय भाषा व् रचना के दोहरे मोर्चे पर एक साथ सक्रियता
दिखा सकनेवालों की कमी महसूस की जा रही थी। ऐसे में भारतेंदु ने अग्रदूत की भूमिका
निभाई। इस काल के अन्य प्रमुख रचनाकार रहे- बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र,
आदि। निबंधों व् नाटकों की ओर रचनकार भारतेंदु के कारण ही आकृष्ट हुए। लाला
श्रीनिवासदास ने 'परीक्षा गुरु' लिखकर हिंदी में मौलिक उपन्यास लेखन का प्रारंभ
किया। इस काल में अनेक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगीं। जिन लेखकों ने इनमें
महत्त्वपूर्ण योगदान किया, उनमें उल्लेखनीय है- राधाचरण गोस्वामी, बदरीनारायण
चौधरी, ठाकुर जगमोहन सिंह, अम्बिकादत्त व्यास, काशीनाथ खत्री, कार्तिक प्रसाद
खत्री, आदि। भारतेंदु ने तो 'भारत दुर्दशा ', 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति',
'चंद्रावली', 'अंधेर नगरी', जैसे नाटक लिखकर ही नहीं, अनेक नाटकों के अनुवाद करके
भी साहित्य की श्रीवृद्धि की।
भारतेंदु का यह काल अनेक
राजनितिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आन्दोलनों के कारण परिवर्तन काल भी कहा जा सकता
है। यही वह समय था जब भारत में राष्ट्रीय चेतना का उद्दभव हुआ। इस काल की अधिकांश
रचनाओं में इसीलिए नवजागरण का सन्देश मौजूद था। ब्रज भाषा के गहरे संस्कारों
के कारण ही इस काल के अधिकांश रचनाकार खड़ी बोली में रचना कर्म कर पाए। भारतेंदु और
प्रेमधन की कतिप्रय कृतियां जरुर खड़ी बोली में हैं। 1850 से 1900 तक का यह
काल आधुनिक हिंदी साहित्य का आधार बना।
महावीर प्रसाद द्वेवेदी
द्वारा सम्पादित 'सरस्वती' से इस काल का दूसरा चरण प्रारंभ हुआ। कथाकारों में
देवकीनंदन खत्री, किशोरी लाल गोस्वामी, लज्जाराम मेहता प्रमुख उपन्यासकार रहे।
'चंद्रकांता संतति' की ख्याति ऐसी हुई कि पाठकों ने इन्हें पढने के लिए हिंदी
सीखी।
कहानीकारों में मास्टर
भगवानदास, रामचंद्र शुक्ल, बंग महिला, गिरजादत्त बाजपेई के बाद जयशंकर प्रसाद, जी.
पी. श्रीवास्तव, कौशिक राधिकारमण प्रसाद सिंह, गुलेरी, चतुरसेन शास्त्री प्रमुख
रहे। इस काल में कथालेखन प्रारंभ करने वाले प्रेमचंद्र ही आगे चलकर हिंदी कहानी की
असल और दीर्घ जीवी भूमि तैयार कर सके।
इस काल में जिन निबंधकारों
ने भाषा का विकास अपनी तरह किया, उनमें महावीर प्रसाद द्वेवेदि, बालमुकुंद गुप्त,
माधवप्रसाद मिश्र, श्यामसुंदर दास और गुलेरी प्रमुख हैं।
यदि द्वितीय चरण की कविता
के प्रारंभ की चर्चा की जाए तो यह श्रीधर पाठक के प्रक्रितिविर्णन से प्रारंभ होकर
हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी की रचनाओं तक विस्तृत है। तीसरे चरण में
कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, आलोचना और कविता ने नयी उड़ान भरी।
'गबन', 'रंगभूमि',
'गढ़कुंडार', 'चित्रलेखा', 'मां', ‘ह्रदय की प्यास', 'कंकाल', 'तितली',
'तपोभूमि', 'सुनीता', 'बुधवा' की बेटी', जैसे उपन्यास कालजयी धरोहर बने।
कहानी में चंडीप्रसाद 'हृदयेश', प्रेमचंद, प्रसाद, सुदर्शन, जैनेंद्र, विनोद शंकर
व्यास, उग्र आदि की रचानों ने साहित्य को समृद्ध किया।
नाटक में प्रसाद, हरिकृष्ण
प्रेमी के साथ ही गोविंद वल्लभ पन्त, गोविन्द दास, उदय शंकर भट्ट और अश्क सरीखे
रचनाकारों ने अभिवृद्धि की। रूपक एवं एकांकी भी लिखे गए। सुदर्शन, रामकुमार वर्मा,
भगवती चरण वर्मा, अश्क व् भुवनेश्वर का संयुक्त संग्रह प्रकाशित हुआ।
काव्य में विकास
हिंदी काव्य में छायावाद
का उदय एक नई प्रवृत्ति के रूप में हुआ। राष्ट्रित भाषा की जाग्रति के साथ ही
वैयक्तिक प्रेम-भाव व् सौन्दर्य-चित्रण के लिए ही नहीं, रहस्य भावना और अध्यात्मिक
प्रेम के लिए भी यह कालखंड महत्वपूर्ण रहा। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी के
अतिरिक्त नवीन, अंचल, दिनकर और सोहनलाल द्वेवेदी भी सक्रीय रहे।
इसके बाद प्रयोगवाद व् नई
कविता का समय प्रारंभ हुआ। सन 1950 के बाद का यह समय 'तारसप्तक' के जरिए समझा जा सकता है। अज्ञेय द्वारा सम्पादित
इस प्रतिनिधि संग्रह के साथ स्वयं संपादक, गिरिजाकुमार माथुर, भारत भूषण अग्रवाल,
मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, रामविलास शर्मा, नेमिचंद जैन के अतिरिक्त जो अन्य महत्त्वपूर्ण
कवि सक्रीय थे, उनमें शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, शील, सुमन व्
ठाकुर प्रसाद सिंह की चर्चा की जानी चाहिए। उसके दूसरे चरण में जिन रचनाकारों ने
अपनी छाप छोड़ी, वे हैं-भारती, नरेश मेहता, सर्वेशवर, रघुवीर सहाय, जगदीश गुप्त,
कुंवर नारायण व् लक्ष्मीकांत वर्मा।
नई कविता के विकास के साथ
ही जो अगली पीढ़ी तैयार हुई उसमें धूमिल, केदारनाथ सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा, अशोक
वाजपेई, जगदीश चतुर्वेदी, जुगड़ी देवताले, विष्णु खरे, प्रयाग शुक्ल सरीखे रचनाकार
सामने आए। जिन अन्य कवियों ने इनके बाद अपनी कविता के नए मिजाज से जगह बनाई, वे
हैं- मानबहादुर सिंह, मंगलेश डबराल, इब्बार रब्बी, आलोक धन्वा, सोमदत्त, राजेश
जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश प्रभृति।
प्रयोगवादी कवि अज्ञेय की कविता
उदारणार्थ:
दुःख सब को
मांजता है
और
चाहे स्वयं
सब को मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु
जिनको मांजता
है
उन्हें यह
सीख देता है कि सब को मुक्त रखें।
गीतों के प्रति, आधुनिकता
के दबाव के चलते रुझान कुछ कम जरुर हुआ, लेकिन नीरज, वीरेन्द्र मिश्र, रमेश रंजक,
नईम, कुंवर बेचैन, योगेंद्र दत्त शर्मा, रामकुमार कृषक, शलभ श्रीराम सिंह जैसे
रचनाकारों ने छंद में नई बात कह कर इस विधा को बनाए रखा। छाया वाद युग में
हास्य-व्यंग्यात्मक काव्य की भी प्रभूत परिमाण में रचना की गयी। छायावाद-युग के
व्यंगकारों में पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का अलग ही स्थान है। इसी युग के
हास्य-व्यंगकार थे-कृष्णदेवप्रसाद गौड़ जिन्हें 'बेढब बनारसी' के नाम से पहचाना
जाता है। इनकी काव्य-शैली का एक उदाहरण:
बाद मरने के मेरे कब्र पर आलू बोना
हश्र तक यह मेरे ब्रेकफास्ट के सामा होंगे,
उम्र सारी तो कटी घिसते कलम ए बेढब
आख़िरी वक्त में क्या ख़ाक पहलवा होंगे।
इधर जिन युवा कवियों ने
अलग पहचान बनाई हैं, उनमें बद्रीनारायण, कात्यायनी, संजय चतुर्वेदी, निर्मल पुतुल,
विमल कुमार, गगन गिल, अनिल जनविजय, लीलाधर मंडलोई और स्वप्निल श्रीवास्तव
उल्लेखनीय हैं। अब एकदम नए कवियों की एक पूरी पांत तैयार हो रही है।
नाटक में प्रसाद के
'ध्रुवस्वामिनी' के बाद 1951 में जगदीश चंद्र माथुर 'कोणार्क' आया। इसके सात वर्ष
बाद मोहन राकेश का 'आषाढ का एक दिन' आया। अन्य नाटककारों में धर्मवीर भारती,
लक्ष्मी नारायण लाल और नरेश मेहता प्रमुख रहे। बाद में सत्येन्द्र शरत,
मुद्राराक्षस, मणि मधुकर, रमेश बक्षी, नरेन्द्र कोहली, कुसुम कुमार आदि उल्लेखनीय
नाटककार रहे।
ऐतिहासिक उपन्यासों से
उदासीन रचनाकारों के समय में चतुर सेन शास्त्री का 'वैशाली की नगरवधू'
वृन्दावनलाल वर्मा का 'मृगनयनी' व् यशपाल का 'दिव्या' ही अपवाद रहे। बदलते मिजाज
के उपन्यास लेखन में जैनेंद्र, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी, उदयशंकर भट्ट, अमृतलाल
नागर, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, रेणु,
अश्क, भीष्म साहनी, राजेंद्र यादव, नरेश मेहता, भैरवप्रसाद गुप्त, हजारी प्रसाद
द्वेवेदी, शिवप्रसाद सिंह की पीढी के रचनारत रहते ही एक और पीढी के उपन्यासकारों
की आ गई। इनमें श्रीलाल शुक्ल, शैलेश मटियानी, शिवानी, भिक्खू प्रमुख हैं। मन्नू
भंडारी, विवेक राय, नरेंद्र कोहली, मनोहर श्याम जोशी, मैत्रेयी पुष्प, रविन्द्र
वर्मा, पंकज बिष्ट, मृदुला गर्ग, विनोद कुमार शुक्ल, राही सेठ, चित्रा मुदगल,
संजीव, नासिरा शर्मा, चंद्रकांता, वीरेंद्र जैन और क्षितिज शर्मा ने इस विधा को
आगे बढाया।
कथानक, भाषा और शिल्प की
दृष्टि से कुछ प्रमुख उपन्यास हैं-'झूठा सच', 'मैला आँचल', 'बलचनमा', 'उखड़े हुए
लोग', 'सुनीता', 'छोटे-छोटे महायुद्ध', 'लेकिन दरवाजा', 'आवां', 'दीवार में एक
खिड़की रहती थी', 'चाक', 'सूखा बरगद', 'डूब' और 'उकाव'।
प्रेमचंद के बाद कहानी ने
तेजी से विकास किया और नई कहानी, अकहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी सचेतन कहानी,
सक्रिय कहानी व् जनवादी कहानी के दौरों के बाद संप्रति हिंदी कहानी एक खुले आसमान
के साथ नजर आ रही है।
कमलेश्वर, मोहन राकेश,
निर्मल वर्मा, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, परसाई, शिव प्रसाद सिंह, अमरकांत,
शेखर जोशी, भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, उषा प्रियंवदा, रेणु, निर्गुण, हृदयेश,
शैलेश मटियानी, कामतानाथ, हिमांशु जोशी, रमाकांत ने अपनी पहचान अलग-अलग
कारणों से बनायी। बाद के दौर में जो कथाकार स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान बना
सके, वे हैं- ज्ञानरंजन, गिरिराज किशोर, विजय मोहन सिंह, रमेश उपाध्याय, गोविंद
मिश्र, असगर वजाहत, स्वयं प्रकाश, संजीव, उदय प्रकाश, शिवमूर्ति, बलराम, महेश
दर्पण, अखिलेश, प्रियवंद, अब्दुल विस्मिल्लाह और सुरेश उनियाल। इनके बाद दो दशकों
के बीच एक नई पीढ़ी उभर कर आई है जिनमें नवीन नैथानी, योगेंद्र आहूजा, संजय कुंदन,
अरविन्द कुमार सिंह, सूरजपाल चौहान, नीलिमा सिन्हा, मनोज रुपड़ा, गौरीनाथ, हरि भट
नागर, कृष्ण बिहारी, कमल कुमार व् उमाशंकर चौधरी सहित अनेक लेखक-लेखिकाएं सक्रिय हैं।
कथा में लघुकथा एक तेजी से
विकसित विधा है। इस विधा को समय-समय पर जिन रचनाकारों ने विकसित किया, उनमें रावी,
विष्णु प्रभाकर, राजेंद्र यादव, रमेश बतरा, असगर बजाहत, उदय प्रकाश, चित्र मुदगल,
महेश दर्पण, विष्णु नागर, अवधेश कुमार और मुकेश वर्मा आदि उल्लेखनीय हैं।
संस्मरणों में विष्णु
प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, कमलेश्वर, कांतिकुमार जैन, रविन्द्र कालिया, विष्णु चंद
शर्मा, काशीनाथ सिंह, मनोहर श्याम जोशी और पी. सी. जोशी का उल्लेख जरुरी है। इसके
बाद की पीढ़ी ने भी अब इस विधा का महत्त्व समझ है। इधर यात्रा वृतांत का भी खूब दौर
रहा है। इनमें निर्मल वर्मा, हिमांशु जोशी, कृष्णदत्त पालीकाल, विश्वनाथ प्रसाद
तिवारी के यात्रावृत्त पठनीय रहे हैं।
साक्षात्कार का जो स्तर
श्रीकांत शर्मा, मनोहर श्याम जोशी और पदमा सचदेव ने बताया था, उसे कुछ हद तक
सुरेंद्र तिवारी, भारत यायाकर, पुष्प भारती और महावीर अग्रवाल ने आगे बढाया है।
सामयिक विषयों पर गंभीर
लेखन के लिए राज किशोर, अशोक वाजपेयी, सुधीश पचौरी, गिरिराज किशोर, प्रभा दीक्षित,
पंकज बिष्ट और प्रभु जोशी उल्लेखनीय हैं।
अपभ्रंश, ब्रज,
अवधि, उर्दू, फारसी, इत्यादि से शब्द जुड़ते-जुड़ते हिंदी भाषा और उसका साहित्य प्रगति
करता गया। आज हिंदी साहित्य में अंग्रेजी के शब्दों का चलन खूब बढ़ा है।
आम लोगो को साहित्य से जोड़ने के लिए उसका सरल और सहज होना बेहद जरुरी है।
स्वतंत्रता के बाद राजभाषा के रूप में प्रतिष्टित हो जाने पर हिंदी के ज्ञान-साहित्य
का योजनाबद्ध विकास हुआ है। हिंदी साहित्य के इतिहास पर गौर करे तो उसमें कई
प्रकार के वाद शामिल है। पूराने लेखों और पदों को पढने से कहीं न कहीं उस समय
का आभास जरुर होता है। किसी न किसी प्रकार की एक विचारधारा रेखांकित होती
है। लेकिन आज का साहित्य व्यक्ति केन्द्रित हो गया है। लेखक,
कवि, रचयिता की रचनाएं उन्ही के चारों ओर फिर रही है। आज के साहित्य का समाज,
सरकार, देश, आदि से कोई सरोकार नहीं नजर आता। केवल लेखक और उसके अपने अनुभव और
उसकी बातें जो ज्यादातर वास्तविकता से अछूते-से लगते है। वर्तमान हिंदी
साहित्य में कहीं समाज और देश की यथास्थिति प्रतिबिंबित नहीं
हो रही। इस युग में भी ऐसे कुछ नाम है जो अपवाद है। लेकिन उनकी संख्या भी
उंगली पर गिन सकने जितनी ही है।
-सोनम प्र. गुप्ता
Ref: Manoram Year book 2012,
बुक: हिंदी साहित्य का इतिहास
बहुत बढ़िया और जानकारीपरक ...
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट!!
आभार
अनु
अनुजी,
Deleteआपकी प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
संपर्क में बने रहे।
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