- सोनम गुप्ता
भिन्न्न्न…भिन्न्न्न…आज-कल कानों में ये आवाज़ हर समय गूंजती रहती है। डर लगा
रहता है कि न जाने इनमें से कौन-सा मच्छर कब काट ले। मलेरिया से डेंगू तक न जाने
कौन-सी बीमारी जकड़ ले। पूरे देश में जहां-तहां डेंगू फैल रहा है। आम आदमी की जान
ले रहा है। उसे कमजोर बना रहा है या सीधे मौत मुकम्बल कर रहा है। फिल्म इंडस्ट्री
के रूमानी निर्देशक यश चोपड़ा की जान भी इन डेंगूवाले मच्छरों ने ही ली थी। चारों
ओर इनकी त्राहि-त्राहि मची हुई है। हमारे नेता भी मच्छरों की तरह हैं। कोई मलेरिया देता है तो कोई डेंगू। गंदे पानी की बजाय साफ और शालीन जगहों पर बसनेवाले इन मच्छरों के डंक बहुत विषैले हैं।
आम आदमी का खून चूसना इन सफ़ेद पोशाकधारी, अहिंसावादी मच्छरों का प्रिय काम है। वास्तविक रूप में ये यहां-वहां एक गंदगी से दूसरी गंदगी पर
भिनभिनाते रहते हैं। अपना शिकार ढूंढते रहते हैं। मच्छर तो गंदे पानी में पनपते हैं।
लेकिन ये जिस जगह पनप जाएं वहां का वातावरण अपने आप गंदा हो जाता है। पहले ज्यादातर मलेरियावाले ही मच्छर पाए जाते थे। लेकिन जब
से मलेरिया के इलाज की दवा खोज ली गयी है। तब से इन्होने डेंगू नामक नई बीमारी ईजाद कर ली है। हम पूरे विश्व में डेंगूवाले मच्छरों की संख्या में शीर्ष पर हैं।
हमने इन डेंगूवाले मच्छरों पर लगाम कसने के लिए लोकपाल बिल, सांसदों को अपने निजी संपत्ति का पूरा ब्यौरा देने, दागी नेताओं पर गाज गिराने जैसे कई हथकंडे
अपनाने की कोशिश की है। फिर भी हम अबतक भ्रस्टाचार उर्फ़ डेंगू नामक इस बीमारी का कारगर इलाज नहीं ढूंढ पाए
हैं। हमने तो कछुवा छाप से लेकर औल आउट तक जला लिया। नार्मल मोड से एक्टिव मोड पर
भी आ गए। सड़कों पर आकर धरना, प्रदर्शन भी करने लगे। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लाइक और कमेंट करने लगे। फिर भी इन ढीट मच्छरों पर कोई असर नहीं हुआ। ये तो बेबाक
होकर अपने डैने पसार उड़ रहें हैं। ये काटने से, खून चूसने से बाज नहीं आए। हमे डेंगू दे दिया। बढ़ती महंगाई में दवा-दारु का
खर्चा भी बढ़ा दिया। अब इनके साथ-साथ सफ़ेद कोर्टवाले दूसरे मच्छर हमारा खून चूसने में सक्रिय हो
गए है।
यहां कुछ सज्जन लोग भी हैं। जो सज्जन के साथ-साथ
समझदार और बुद्धिजीवी भी हैं। जो मच्छरों को भगाने का असफल प्रयास न करते हुए ओडोमोस मलकर इनसे बचने लगे। सज्जन को इन दागियों के मुंह लगना शोभा नहीं देता।
वो बचने में ही विश्वास रखते हैं। वे न तो दागी मच्छरों को मारकर पापी बनना चाहते और न ही उनसे दुश्मनी मोल लेना चाहते हैं।
वैसे ये नेताओं को मच्छर होने के लिए हमने नहीं चुना था। हम तो इन्हें
मधुमक्खी के रूप में देखना चाहते थे। जो साफ़-सुथरी, सुंगंधित फूलों पर भिनभिनाते। हमे मीठे शहद देते। लेकिन ये तो मधुमक्खी बनने
की बजाय उसके ही प्रजाति के मच्छर बन गए। दोनों की प्रजाति भले ही एक हो लेकिन
दोनों के गुण-धर्म बेहद भिन्न है। पहले जहां-तहां सुंगंधित, रंग-बिरंगे फूल हुआ करते थे और उनपर
भिनभिनाते मधुमक्खी। ऊंचे पेड़ों पर मधुमक्खी का छत्ता। लेकिन अब हर जगह
गंदे पानी का संचयन होता है। गली-मोहल्ले में नालियां और गटर बहते हैं और उनपर बड़े मच्छर नए लार्वा को पनपाने का हर भरसक प्रयास
करते हैं। अपनी जाति को बढाने का पूरा प्रयास करते हैं। चूंकि इतिहास गवाह है कि 'जातिवाद' वोट बैंक को भरने का सफल काम करता आया है। फिर वहां भी विषैले मच्छरों का जमावड़ा होता। इन सभी सफ़ेद पोश मच्छरों का एक ही धेय होता है, ज्यादा से ज्यादा लोगों का खून चूसकर, अधिकतम लोगों को डेंगू देकर दिल्ली पहुंचना।
इन डेंगूवाले मच्छरों को भगाने के लिए कई विकल्प ढूढने के बाद महसूस होने लगा है कि ये मच्छर कम
होने की बजाय दिन-ब-दिन बढ़ते ही जा रहें हैं। जो कभी मधुमक्खी हुआ
करते थे वो भी मच्छर बनने लगे हैं। फूलों का रस चूसने की बजाय उन्हें खून चूसने
में ज्यादा मजा आने लगा है।
डेंगूवाले नेताजी |
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