आज लोकल डिब्बे में दो महिलाएं थर्माकोल के दो बड़े डब्बे ले कर बैठी थी...उसमें दोनों तरफ दो-दो १ के सिक्के जितना छेद था. और उपर डिब्बे में कटिंग कर उसपर पारदर्शी प्लास्टिक लगा हुआ था.
सभी औरते झांक-झांक कर उस डिब्बे के भीतर दिखने की कोशिश कर रही थी. पर कुछ समझ नहीं आ रहा था. थोड़ी देर बाद उस डिब्बे की मालकिन ने डिब्बे के ढक्कन को हलके से उठाया और उसमें हाथ डालकर मुस्कुराने लगी.
सभी औरते एकदम चौक कर उस डिब्बे में झांक रही थी. मैं काफी दूर बैठी थी इसलिए मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था... सभी के चेहरे पर उठते अलग-अलग भावों ने मेरी जिज्ञासा को जन्म दिया. और मैं उस डिब्बे के राज़ को जानने के लिए बेचैन हो गयी. तभी थोडा पास जाकर उस खिड़कीनुमा पारदर्शी प्लास्टिक से मैंने झाका तो उसमें कपडे लिपटे से दिखे...मुझे लगा कोई जानवर होगा. वैसे ही उस रहस्यमय डिब्बे से हलकी सी आवाज़ उठी जो अपने जाती-प्रजाति की सी लगी ..तब उस डिब्बे की मालकिन ने फिर से उससे खोला तब मैंने जो उसके भीतर देखा. उसे देखर मेरी आँखें खुली की खुली रह गयी. उसके भीतर एक बेहद दुर्बल नन्ही परी थी. जाहिर सी बात है की दुसरे डिब्बे में भी उसकी ही बहिन थी. कारण यह पता लगा की बचियाँ सातवे महीने में जन्मी है, इसलिए बेहद कमजोर है. दुर्भाग्यवश, पैसों की कमी के चलते वे टैक्सी या रिक्शा नहीं ले पाए...और मजबूरन इतनी मार्मिक अवस्था में ट्रेन से सफ़र कर रहे थे...उन दोनों कन्याओं का पहला मुंबई रेल सफ़र वह भी थर्माकोल के डिब्बे में...बेहद रोचक था...
यह हमारे भारत का ही रंग है जहां खाने के साथ-साथ बच्चे भी डिब्बे में पार्सल होते है...
दिल को छू लेनेवाली घटना है.
ReplyDeleteबहुत ही करुणापूर्ण प्रसंग है. पलकें भिगानेवाला.
ReplyDeleteगरीब बेचारे क्या करें... रोजाना चौराहों पर लाल बत्ती में ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं और मानवीय संवेदना धीरे-धीरे पथरा जाती है.
@ स्वाति गुप्ता ...अच्छा लगा जानकर की आपको यह प्रसंग पसंद आया.
ReplyDelete@ hindizen.com ख़ुशी है की आपने इस लेख को पढ़ा और साथ ही प्रतिक्रिया भी दी. धन्यवाद!